Sunday 8 January 2017

मैं कैसे निपटता हूं नस्लीय टिप्पणियों से


0 आर्यभट् भट्ट ब्राह्मण ही थे
इस घोर जातिवादी भारतीय समाज में अधिकतर लोग नस्लीय टिप्पणीय हिंसा के शिकार होते हैं, वास्तव में नस्लीय टिप्पणी करने का उद्देश्य स्वयं को श्रेष्ठ साबित करना और प्रकारांतर से सत्ता और समाज में श्रेष्ठ स्थिति साबित कर सत्ता के माल का अधिकतम हिस्सा चट करना होता है। चूंकि पारंपरिक (प्राथमिक) ब्राह्मण हमसे स्वयं को श्रेष्ठ क्रम का मानते हैं (होते नहीं हैं आज सभी के कर्म एक से हैं) इसलिए मेरे स्पष्ट ब्रह्मभट्ट लिखने और स्वयं को ब्राह्मण कहने से उनको तकलीफ होती है। वे समय-समय पर मुझ पर नस्लीय टिप्पणी करते रहते हैं। ऐसा नहीं है कि केवल ब्राह्मण ही नस्लीय टिप्पणी करते हैं। कभी-कभी क्षत्रिय और ओबीसी या एससी-एसटी भी दबे स्वर में पीठ पीछे टिप्पणी करने से नहीं चूकते हैं। ऐसा इसलिए कि वे कहीं न कहीं किसी कारणवश हमारी श्रेष्ठता स्वीकार नहीं कर पाते होंगे। खैर कोई बात नहीं मैं इन नस्लीय टिप्पणियों का अभ्यस्त हो चुका हूं और मैंने इस नस्लीय हिंसा के प्रतिकार के कुछ तरीके विकसित किए हैं।
अपनी बात रखने से पहले मैं मंच पर जाति संबंधी अपने विचार रखना चाहूंगा। मंच पर आदरणीय ओम प्रकाश शर्मा जी द्वारा यह विचार रखा गया है कि मैं भट्ट जाति को राष्ट्रीय परिप्रेक्ष्य में देखता हूं जबकि जातियां क्षेत्रीय स्तर पर विकसित होती हैं। पंड़ित जी ने अपने तर्क के समर्थन में इस बात का भी उल्लेख किया था कि भट्ट विभिन्न प्रांतों में अलग-अलग होते हैं कुछ स्वयं को उपब्राह्मण मानते हैं और कुछ स्वयं को अब्राह्मण मानते हैं, जो स्वयं को उपब्राह्मण मानते हैं वे ब्रह्मभट्ट लिखते हैं या अपने नाम के बाद अन्य ब्राह्मण उपनाम लगाते हैं। पंड़ित जी का यह भी कथन है कि आर्यभट और दूसरे प्रांत के भट्ट एक ब्राह्मण नहीं हैं । वे अपने इस कथन को भी इसी सूत्र से पुष्ट करते हैं। पंडि़त जी ने यह भी विचार रखा है कि भट्ट शब्द भाट से बना है जैसे जाट से जट्ट और भाट से भट्ट।
मैं पूरे सम्मान के साथ यह कहना चाहता हूं कि यदि मैं सभी भट्टों को एक मानता हूं तो उसके पीछे मेरे पास ठोस तर्क है। आपका यह कथन कि जातियां क्षेत्रीय स्तर पर विकसित हुईं हैं एकदम सत्य है। हम पुष्करणा ब्राह्मण, मैथिल ब्राह्मण,बंगाली ब्राह्मण,कन्नड़ ब्राह्मण, छत्तीसगढ़ी ब्राह्मण, उत्तराखंडी या पहाड़ी ब्राह्मण आदि आदि को गिना सकते हैं। ये सभी प्राथमिक ब्राह्मणों की जातियां है लेकिन इस जाति नियम को उपब्राह्मणों पर लागू नहीं किया जा सकता है क्योंकि वे बाद में विकसित हुई जातियां हैं जो कालांतर में सामाजिक विकास या कहें विचलन के परिणाम स्वरूप अस्तित्व में आईं हैं। इसके प्रमाण में शब्दकोश में संस्कृत के जाति सूत्र पर्याप्त हैं। विभिन्न प्रदेशों में ब्राह्मणों की वर्तमान वास्तविक स्थिति को पहचानने के लिए उनके बीच प्रचलित एक और प्रवृत्ति पर भी ध्यान देना पड़ेगा। कई प्रदेशों में विस्थापित शक्ति सम्पन्न ब्राह्मण जातियों ( पुरोहितार्थ अन्य राज्यों में बुलाए गए) में स्थानीय ब्राह्मण जातियां शामिल हो गई हैं या स्वयं को घोषित कर चुकी हैं इसलिए उनमें अब विभेद दिखा पाना मुश्किल होता है। जैसे छत्तीसगढ़ में छत्तीसगढ़ी ब्राह्मण स्वयं को सरयूपारी कहते हैं जबकि सरयू नदी उत्तर प्रदेश की नदी है। वहीं छत्तीसगढ़ में ऋषि आश्रमों की भरमार है फिर भी सभी ब्राह्मण खुद को उत्तर प्रदेश से जोड़ते हैं वास्तव में उत्तर प्रदेश से आए ब्राह्मणों के पास बड़ी-बड़ी जमीन के प्राचीन दान ताम्रपत्र हैं, उनकी जमीनदारियां स्थापित हो गईं थी इसलिए छत्तीसगढ़ी ब्राह्मणों ने भी स्वयं को शक्तिशाली बताने के लिए सरयूपारी घोषित कर दिया जबकि उनके रीति रिवाज सरयूपारीयों से मेल नहीं खाते हैं। ऐसे ही अन्य प्रांतों में भी हुआ होगा, यह एक सहज मानवीय प्रवृत्ति है।
सामाजिक रूप से देखें तो समान कार्य और भ्रष्टत्व ही जाति विकास का आधार है। ऋषियों ने वनों में भगवत आराधना के लिए आश्रम स्थापित किए थे । वे पथभ्रष्ट हो कर गृहस्थ बन गए, उनके वंशज ही ब्राह्मण कहलाए याने ब्राह्मण का अर्थ मात्र ऋषि वंशज हैं। चूंकि सभी प्रदेशों में ऋषि पाए जाते थे इसीलिए सभी प्रदेशों में समान रूप से स्थानीय ब्राह्मण मिलते हैं। इसके साथ ही उनके रंग रूप और संस्कृति भी उसी राज्य के अनुसार होती है। कालांतर में इस जाति का प्रमुख व्यवसाय मंदिरों में देवों की पूजा कर्म और पुरोहिती करना हुआ।
अगर हम देखें तो वर्तमान में चार तरह के ब्राह्मण जातियां दिखाई पड़ती हैं। पहले प्राथमिक ब्राह्मण (विभिन्न प्रांतों के) तथा दूसरे उपब्राह्मण ( ब्राह्मण सहोदर) ये दोनों वर्ग जन्मना ब्राह्मण हैं। ( इनकी व्याख्या मैं पहले कर चुका हूं) जबकि कर्मणा ब्राह्मण में गिरी, गोस्वामी तथा धार्मिक व सामाजिक आंदोलन ने विकसित हुई जातियां जैसे आर्य-समाजी पुरोहित परिवार और गायत्री परिवार के पुजारियों को शामिल किया जा सकता है। इनके अतिरिक्त समाज में कलाकारों का भी एक समूह है जो कला-पारंगत होने के कारण स्वयं के आगे पंडित लगाता है। इनमें यह जरूरी नहीं कि सभी ब्राह्मण वर्ग से संबंधित ही हों। उदाहरण में प्रख्यात बांसुरी वादक पंड़ित हरि प्रसाद चौरसिया को लिया जा सकता है।
उपरोक्त प्रथम तीन समूहों को अलग-अलग क्षेत्रों में मंदिरों का पुरोहित्य होने का गौरव प्राप्त है। जबकि आर्य समाजी और गायत्री परिवार से जुड़े लोग भी उनसे संबंधित समाजिक मंदिरों के पुजारी हैं और बहुत संभव है कि कालांतर में वे भी स्वयं को ब्राह्मण घोषित कर दें। उसी प्रकार कला परांगत व्यक्ति भी आगे चलकर स्वयं को ब्राह्मण घोषित कर सकते हैं।
मेरा तर्क है कि उप-ब्राह्मणों भृगु, अंगिरा और कवि के वंशजों को आप प्राथमिक जातियों के नियमों से कैसे बांध सकते हैं। क्या आप उत्तराखंड के जोशी और महाराष्ट्र के जोशी में विभेद करेंगे जबकि दोनों एक ही सामाजिक नियमों के तहत अस्तित्व में आए हैं। लगता है आपकी दुविधा कवि वंशियों के कहीं ब्राह्मण और कहीं अब्राह्मण होने के कारण है इसका कारण भी भ्रष्टत्व ही है क्योंकि कई तरह के भ्रष्ट ( जिनके पितृ वंश ब्राह्मण नहीं थे) स्वयं को भट्ट लिखने लगे और यह भ्रांतियां उत्पन्न हुईं। मेरा मानना है कि कविवंशी उपब्राह्मण को तथा क्षेत्र वार उनको बांटना गलत है अगर हम ऐसा पूर्वाग्रह पालेंगे तो आप स्वयं को ब्राह्मण भी सिद्ध नहीं कर पाएंगे।
एक बात मैं मंच पर और कहना चाहूंगा कि कुछ लोग आर्यभट् को हममे से अलग बताने का प्रयास करते हैं और हमारे ही लोग उनकी हां में हां मिलाते हैं। मैं यह कहना चाहता हूं कि आर्यभट कोई परग्रही (एलियन) नहीं थे इसी देश मैं जन्म लिए थे तो उनका कोई कुल और कोई वंश भी रहा होगा। आर्यभट् को यदि आप नाम मानते हैं तो परिवर्ती युग में तथा पूर्व युग में भी इस नाम की परंपरा होनी चाहिए थी, लेकिन ऐसा नहीं है। न इनके पहले और न बाद में आर्यभट् नाम सुनने में आता है। जबकि आर्य नाम की सत्ता आज तक विद्यमान है। इससे यह सिद्ध होता है कि ऐसी व्याख्या सिर्फ भ्रम उत्पन्न करने के लिए फैलायी गई है ताकि किसी एक वर्ग विशेष को उनके आत्मगौरव से वंचित किया जा सके। शायद मैं अपनी बात आप तक पहुंचा सका हूं कि आर्य उनका नाम था और भट् उनका आष्पद बाकी इस तरह की व्याख्या का कोई अस्तित्व नहीं है। मैं ऐसे भ्रम फैलाने वाले व्यक्तियों को चुनौती देता हूं कि आर्यभट् अगर उनमें से थे तो अपना उपनाम भट् रख कर दिखाएं। अन्यथा शब्दों की बकवास कर भ्रम फैलाने की कोशिश न करें। हमारा साहित्यिक, राजनीतिक और समाजशास्त्रीय अध्ययन इतना भी कमजोर नहीं है लोगों की वास्तविक मंशा न समझ सकें।
रही बात भट्ट शब्द की उत्पत्ति की तो भट्ट शब्द भ्रष्ट से उत्पन्न हुआ है। भ्रष्ट ब्राह्मण को मुख सुख के कारण (जीभ उलटाने वाली ध्वनियां) र और आधा ष् को हटाकर भट ब्राह्मण किया गया । बाद की सदियों में बाद लोगों ने उपनाम को अलंकृत कर भट् से भट्ट बना लिया। आज भी बंगलूरू में भट् ब्राह्मण (प्राथमिक उपब्राह्मण परिवार) पाए जाते हैं । इनके प्रतिनिधि के रूप में बालीवुड के तन्मय भट् के लिया जा सकता है।
इसीलिए मैं पूरी दृढ़ता से कहता हूं कि हमसे आर्यभट्, भास्कराचार्य तथा वेद-मीमांसक भट्ट ब्राह्मणों की विरासत को कोई नहीं छीन सकता है।
अब मैं अपने मूल प्रश्न पर आऊंगा मेरे ऊपर जो नस्लीय टिप्पणी होती है उसमें प्रमुख हैं भट्ट ब्राह्मण नहीं होते हैं। दूसरा आप लोग बाद में बने हुए ब्राह्मण हैं। तीसरे चारण और भाट विरुदावली गायन करने वाले होते हैं। और चौथा भाट भीख मांगने वाली जाति है जो अपनी आजीविका के लिए भिक्षाटन करती है।
इसके प्रतिकार में पहले तो मैं यह बताता हूं कि भट्ट और भाट एक नहीं हैं और फिर कहता हूं कि अगर भट् ब्राह्मण नहीं हैं तो बताइए आर्यभट् को आप क्या मानते हैं। इसके जवाब में सामने वाला ऊं आं करने लगता है।क्योंकि आर्यभट् एक इतना चर्चित नाम है कि कोई उन्हें ब्राह्मण से खारिज कर ही नहीं पाता है। उसके बाद मैं पूरी अपनी वंश परंपरा वेद-मीमांसक पृष्ठभूमि, कुमारिल भट्ट जी के नाम के साथ चढ़ाई कर देता हूं। (वास्तव में कुमारिल भट्ट जी के बलिदान के बारे में विशेष कोई नहीं जानता है) उसके बाद मेरी विजय होती है।
रही बात भिक्षाटन की तो सुदामा का उदाहरण भी पर्याप्त होता है। औरन को धन चाहिए बावरि बाम्हन को धन केवल भिक्षा। इसके साथ वर्तमान में रीवांचल की प्राथमिक ब्राह्मणों की झोली चलाने की भी यादे दिलाने से नहीं चूकता हूं। साथ ही विरुदावली गायन की बात तो कहता हूं यह एक कौशल है उसमें हर वो जाति जो पढ़ने लिखने में प्रवीण होती है भाग लेती है। चाहें ते आज भी समाज को झांक लें। इस तरह के वाक युद्ध में मैं आज तक विजयी होता रहा हूं।
मैं एक बात और कहना चाहूंगा कि मंच पर कुछ युवा मुझसे प्रामाणिक दस्तावेजी इतिहास की मांग करते हैं। तो क्या कभी आपने पूछा कि जो लोग स्वयं को विशिष्ट (भगवान राम के गुरु) का अंश बोलते हैं उनके पास कौन से ऐतिहासिक दस्तवेज हैं या वे उनकी कौन सी पीढ़ी में आते हैं। कहने का मतलब साफ है समाज में वाचिक परंपरा के तहत जातियों का इतिहास संरक्षित रहता है। उसकी सूचनाएं मिल सकती है लेकिन ठोस साक्ष्य नहीं। जातियों में समय-समय पर ऊंच नीच के हमले भी होते रहे हैं और सामाजिक आर्थिक तथा राजनैतिक उत्थान-पतन के साथ जातियों की स्थिति भी बदलती रहती है। इसके कोई ऐसे ऐतिहासिक प्रमाण नहीं दिए जा सकते हैं। अब आप चाहें तो स्वयं को आर्य या कुमारिल का अंश कह सकते हैं या फिर स्वयं को स्थानीय ब्राह्मणों से जोड़ते हुए सेकेंडग्रेड ब्राह्मण घोषित करें आपकी मर्जी। मैं स्वयं को आर्य और कुमारिल का अंश कहलाना पसंद करता हूं।
अंत में समाज से मेरा इतना निवेदन है कि समाज में गलत लकीरें मत खींचिए और सही लकीरें मत काटिए। डेढ़ हजार साल पहले छूटी जाति में मिलने का सपना झुक कर देखने से ज्यादा अच्छा है समानधर्मी सगोत्रीय भट्ट ब्राह्मणों से जुड़ें चाहे वे किसी भी प्रांत के भट्ट ब्राह्मण क्यों न हो, नहीं तो या कम से कम उनके प्रति अनुराग जरूर रखें क्योंकि आज नहीं तो कल वे आपमें ही मिलेंगे । आपको इस संचारक्रांति के युग में केवल प्रेम से बाहें फैलाना है। देश बदल रहा है क्या हम राष्ट्रीय स्तर पर एक नहीं हो सकते।