Monday 26 October 2015

नया राजधानी तितली पार्क पैसों की बजह से पिछड़ा

 नया रायपुर के बागों में नहीं हुआ तितलियों का बसेरा
रायपुर। नया रायपुर सेंट्रल पार्क लैण्ड स्केप आर्किटेक्ट की माने तो सेन्ट्रल पार्क का बटरफ्लाई पार्क फण्ड की कमी से पिछड़ गया है। जबकि एनआरडीए की प्राथमिकता सिर्फ सेन्ट्रल पार्क है। सेंट्रल पार्क के अन्य घोषित संरचना बटरफ्लाई जोन,बर्ड आइवरी तथा टाय ट्रेन को बाद में विकसित करने के लिए रखा गया है।

राज्य ने नया रायपुर को इक्कीसवीं सदी का अत्याधुनिक नगर बसाने की घोषणा की है इसके लिए कई तरह के लोक लुभावन संरचनाएं बनाने की भी योजना है। इन्हीं संरचना में एक है बटरफ्लाई पार्क। राजधानी के सेंट्रल पार्क में ढाई एकड़ में यह बटरफ्लाई पार्क बनाना है लेकिन सेन्ट्रल पार्क को बनाने वाली कम्पनी मडव कल्संटेंट के विश्वास मडव ने बताया कि यह पार्क फण्ड की कमी के चलते पिछड़ गया है। उन्होंने बताया कि सिंगापुर के बटरफ्लाई माडल का सस्ता संस्करण यहां बनाने की योजना है इस योजना में हाई मास्क लाइट खंबों की ऊंचाई के सहारे जाली का एक बंद नेट हाउस बनाया जाएगा जिसके अंदर तितलियों के पसंदीदा फूल तथा पौधे विकसित किए जाएंगे। इस नेट हाउस में प्रदेश तथा देश की विभिन्न प्रजातियों की तितलियों को ला कर छोड़ा जाएगा। यह पार्क एक तरह से पार्क के साथ ही साथ तितलियों का संरक्षण स्थल भी होगा।
फिलहाल नया रायपुर में अब शीतऋतु ने दस्तक दे दी है। नया रायपुर के बागों में फूल भी खिले हैं परंतु एक्का-दुक्का ही तितली ही उड़ती दिख रही है। अभी भी नया रायपुर में तितलियों का बसेरा नहीं हुआ है। वैसे सेंट्रल पार्क में ढाई से तीन सौ सैलानी प्रतिदिन सैर करने पहुंच रहे हैं।

फण्ड की कमी के चलते रुका काम
फंड की कमी तथा सेन्ट्रल पार्क के बीच के कुछ जमीन विवाद के कारण सेन्ट्रल पार्क के बटरफ्लाई पार्क का मामला अटक गया है। इन समस्याओं के समाधान के बाद उसे विकसित किया जाएगा।
विश्वास मडव
लैंड स्केप आर्किट्रेक्ट, मडव कंसल्टेंट
09819350352

Wednesday 21 October 2015

धान के कटोरे में बासमती का भोग


 प्रदेश में साढ़े 36 लाख हेक्टेयर में धान का उत्पादन

रायपुर।  छत्तीसगढ़ अपने चावल की विविधता, स्वाद तथा सुगंध के लिए जाना जाता है। यहां उत्पादित होने वाला चावल बच्चों के लिए भी सुपाच्य है वहीं शुगर के मरीजों के लिए भी पथ्य है लेकिन इसके बाबजूद प्रदेश के समारोहों में बासमती का पुलाव और बिरयानी खिलाई जाती है। बासमती चावल को प्रदेश में भी स्टेटस सिंबल का दर्जा मिला हुआ है।
उल्लेखनीय है कि राज्य निर्माण के बाद प्रदेश ने व्यापारिक एवं औद्योगिक क्षेत्र में ऐसी कोई उपलब्धि हासिल नहीं जिससे उसे देश तथा विदेश में विशेष ख्याति हासिल हो सके जबकि प्रदेश में ऐसे कई क्षेत्र हैं जिस पर फोकस किया जाता तो राष्ट्रीय एवं अतर्राष्ट्रीय स्तर पर प्रसिद्धि मिल सकती थी। इन विशेष क्षेत्रों में राज्य के लोहा,हीरा तथा चावल को गिनाया जा सकता है। राज्य अभी तक अपने किसी उत्पाद की ब्रांडिंग करने में असमर्थ रहा है।
इंदिरा गांधी कृषि विश्वविद्यालय के शस्य जीव द्रव्य विभाग के प्रभारी डा.सरावगी बताते हैं कि छत्तीसगढ़ का चावल बासमती की तुलना में अधिक सुगंधित होता है।  यहां का चावल बासमती की तुलना में कम लंबा होता है लेकिन कोमल होता है इसलिए छत्तीसगढ़ के चावल को भरपेट खाया जा सकता है। वहीं बासमती को खाने के बाद थोड़ा सा स्वाद के लिए लिए जाने की परंपरा है। बासमती में कम एमाइलेज (स्टार्च) होने के कारण इसे अधिक मात्रा में नहीं खाया जा सकता है यह रूखा होता है। छत्तीसगढ़ ने पिछले दिनों देश की पहली हाई जिंक राईस वाली न्यूट्रिन रिच किस्म जारी की है। इसके अलावा लो ग्लाइसेमिक इंडेक्स के कारण यहां की एक स्थानीय धान की किस्म चपटी गुरमटिया को शुगर के मरीजों के लिए उपयुक्त पाया गया है।
एग्रीकान के अध्यक्ष डा.संकेत ठाकुर कहते हैं कि सरकार ने राज्य में दाना-दाना चावल खरीदने की योजना लाई थी तो सभी किसान संकर किस्मों के धान उत्पादन को आगे आए क्योंकि संकर किस्मो की पैदावार अधिक आती है। राज्य में होने वाली सरकारी खरीद के कारण धान का उत्पादन एक संरक्षित कैश क्राप बन गया था।  इस योजना में पतले और मोटे चावल के भाव में ज्यादा अंतर नहीं होने के कारण भी किसान सुगंधित चावल की किस्मों को उगाने में हतोत्साहित हुए आज सिर्फ सुगंधित चावल सरगुजा तथा जशपुर क्षेत्र में बोया जाता है। राज्य में सुगंधित धान लगाने का रकबा अब मात्र एक लाख हेक्टेयर रह गया है। वर्तमान में जबकि राज्य की नीति बदल गई है सरकार किसानों से उसकी उपज का 15 क्विंटल प्रति एकड़ के हिसाब से धान खरीद रही है तो ऐसे में फिर से किसान अगर अच्छी कीमत मिले तो सुगंधित धान पैदावार की ओर लौट सकता है। 
छत्तीसगढ़ राइस मिल एसोसिएशन के अध्यक्ष योगेश अग्रवाल ने कहते हैं कि छत्तीसगढ़ पहले की तरह धान का कटोरा  नहीं रहा यहां के पतले चावल की आपूर्ति अब महाराष्ट्र से आने वाले पतले चावल से हो रही है जिसकी क्वालिटी कमतर होने के बावजूद राजधानी में व्यापारियों द्वारा बेचा जा रहा है। छत्तीसगढ़ का चावल पूरे देश में अपनी मिठास और सुगंध के लिए जाना जाता है। जहां तक बासमती चावल को सम्मान मिलने की बात है वह देखने में सुन्दर होता है आजकल शो का जमाना है इसलिए यहां भी पार्टियों में उसे परोसते हैं।
कृषि विभाग के संचालक प्रताप कृदत्त कहते हैं कि छत्तीसगढ़ का उत्पादित सुगंधित चावल मेट्र के मांग की ही पूरा नहीं कर पाता तो उसकी विदेश के लिए ब्रांडिंग कैसे की जाए। प्रदेश में साढ़े 36 लाख हेक्टेयर में धान का उत्पादन लिया जाता है जिसमें सुगंधित धान का हिस्सा बहुत कम है। सुगंधित चावल की ब्रांडिंग के लिए छत्तीसगढ़ शासन कोई योजना नहीं ला रहा है।
इस मुद्दे पर बलरामपुर कृषि विज्ञान केन्द्र के जीराफूल उत्पादन परियोजना के प्रभारी डा.अजय त्रिपाठी कहते हैं कि बासमती को सम्मान सिर्फ इसलिए मिला रहा है क्योंकि यह सबसे पहले अंतर्राष्ट्रीय बाजार में गया जिसके कारण टीवी तथा अन्य प्रचार माध्यमों में विज्ञापनों के माध्यम से इसे स्टेटस सिंबल बनने का मौका मिला, हमारा चावल अभी बाजार में गया ही नहीं है अन्यथा अभी भी वह अतर्राष्ट्रीय बाजार में छाने का माद्दा रखता है। जरूरत है तो सिर्फ सुगंधित चावल उत्पादक संघों का फेडरेशन बनाकर आक्रामक मार्केटिंग की, रही बात सुगंधित किस्म के धान के कम उत्पादन की तो यह उसकी अच्छी कीमत से फायदे में तब्दील की जा सकती है। उन्होंने कहा कि सुगंधित धान की खेती के कैश क्राप में तब्दील करने के लिए सुगंधित धान उत्पादन ही नहीं बल्कि किसानों के द्वारा उसका चावल बना कर खुद मार्केटिंग करने की जरूरत है। जिसका सफल प्रयोग हम बलरामपुर के जीराफूल उत्पादन परियोजना में कर रहे हैं।

Monday 19 October 2015

चावल जीराफूल की अंतर्राष्ट्रीय बाजार में दस्तक


0 दुबई के ट्रेडर ने एमओयू करने किया संपर्क

रायपुर। छत्तीसगढ़ का सुगंधित चावल जीराफूल को स्थानीय बाजार में जहां अच्छा प्रतिसाद मिल रहा है, वहीं उसकी विदेश में भी मांग की संभावना तलाशी जा रही है। राज्य ने अपने सहकारी उत्पाद को विदेशों में पापुलर करने के लिए नई दिल्ली में शुक्रवार से आयोजित राइस इंटरनेशनल कांफ्रेंस में प्रस्तुत किया है।
जानकारी के अनुसार छत्तीसगढ़ की टोपोग्राफी (भौगोलिक संरचना) में बस्तर और सरगुजा की निचली जमीन सुगंधित चावल उत्पादन के लिए उपयुक्त है इसलिए सरगुजा में पारंपरिक जीराफूल की खेती को पिछले साल से व्यापारिक रूप दिया गया है। जिला बलरामपुर कृषि विज्ञान केन्द्र के डा.अरुण त्रिपाठी ने बताया कि सरकारी प्रयासों से वर्तमान में जिले के धान उत्पादित 90 हजार हेक्टेयर रकबे में से मात्र 7 हजार हेक्टेयर में 40-45 किसानों द्वारा जीरा फूल सुगंधित चावल का उत्पादन शुरु कराया गया है। इस जीराफूल सुगंधित धान उत्पादन में 9 स्वसहायता समूह कार्यरत हैं जिसमें से 3 स्वसहायता समूह सीधे विज्ञान केन्द्र से जुड़े हैं। इन समूहों द्वारा उत्पादित जीराफूल को विभिन्न एजेंसियों एवं संस्थानों के माध्यम से विक्रय किया जा रहा है। उन्होंने बताया कि इस नई पहल से स्वसहायता समूह से जुड़े सभी किसान व्यापारी में तब्दील हो चुके हैं वे अपने उत्पादन का स्वयं मूल्य निर्धारण करते हैं और अपने उत्पाद जीराफूल को सीधे उपभोक्ताओं को बेच देते हैं। किसानों को जीराफूल उत्पादन में 30 रुपए प्रतिकिलो की लागत पड़ती है जिसे किसान 60 रुपए प्रतिकिलो बेच रहे हैं गुणवत्ता के कारण उसका चावल हाथों हाथ बिक रहा है जिसका सीधा लाभ किसानों को मिल रहा है।
श्री त्रिपाठी कहते हैं कि जीराफूल सरगुजा का पारंपरिक चावल था लेकिन दो दशक में इसकी खेती में तेजी से गिरावट आई थी, किसान हाईब्रीड धान के उत्पादन के लिए प्रेरित हुए थे लेकिन धान लगाने का ज्यादा खर्च और हर साल नए बीज खरीदने के खर्चीले सौदे के कारण पिछले दो साल से किसान जीराफूल उत्पादन की ओर मुड़े हैं। इन किसानों ने कृषि विज्ञान केन्द्र के माध्यम से पारंपरिक चावल उत्पादन परियोजना से जुड़ कर जीराफूल का उत्पादन शुरु किया है। पिछले दो सालों में बलरामपुर जिले के किसानों का जीराफूल उत्पादन पहले की तुलना में दो गुना रकबा हो गया है।
श्री त्रिपाठी का कहना है कि स्वसहायता समूह को राज्य सरकार का भरपूर सहयोग मिल रहा है। इसके चलते ही किसानों का उत्पाद राजधानी के माल से लेकर अन्य एजेंसियों में बिक रहा है। चावल की गुणवत्ता को देखते हुए दुबई का अंतर्राष्ट्रीय ट्रेडर ओजोन कन्सल्टेंट राज्य से 100 टन चावल प्रतिवर्ष का एग्रीमेंट करने को तैयार है वो हमारे उत्पादन की सीमां 100 टन छूने का इंतजार कर रहा है। जबकि राज्य शासन के सहयोग से पिछले शुक्रवार से शुरु हुए नई दिल्ली के इंटरनेशनल राइस कांफ्रेंस में स्वसहायता समूह के किसान प्रतिनिधि को भेजा गया है। इस अवसर पर विक्रय के लिए चावल के एक किलो व पांच-पांच किलो के पैकेट भी भेजे गए हैं। राज्य का सहकारी उत्पादन अब अंतर्राष्ट्रीय बाजार में अपनी संभावना तलाश रहा है।

राजधानी में हाथोहाथ बिकता है
राजधानी के इंदिरा गांधी कृषि प्रोद्योगिकी विक्रय केन्द्र में सरगुजा के जीराफूल की बिक्री हाथों हाथ होती है। हम पूर्ति नहीं कर पा रहे हैं।
श्रीमती ज्योति भट्ट
तकनीकी सहायक

Thursday 15 October 2015

सूखा से निपटने तालाबों के जल प्रबंधन की जरूरत


0 38 हजार तालाबों के प्रबंधन की जिम्मेदारी किसकी

 रायपुर। सूखे से निपटने के लिए राज्य में जल प्रबंधन को महत्वपूर्ण माना जा रहा है। वैज्ञानिकों का मत है कि छत्तीसगढ़ का प्राचीन जल प्रबंधन श्रेष्ठ था लेकिन कालांतर में उसके रख-रखाव की ओर किसी का ध्यान नहीं रहा। वर्तमान में राज्य में 38 हजार तालाब मौजूद हैं लेकिन इसके रख रखाव को लेकर दो विभागों में आपसी विवाद है।

कृषि वैज्ञानिक डा.एएसआरएएस शास्त्री ने कहा कि छत्तीसगढ़ के हर गांव में कम से कम दो तालाब हैं।  यदि इन तालाबों के माध्यम से वर्षा जल का प्रबंधन किया जाए तो राज्य में पडऩे वाले सूखे से काफी हद तक निपटा जा सकता है। पहले इन तालाबों के माध्यम से जल प्रबंधन किया जाता था लेकिन बाद में इनके रख रखाव की ओर ध्यान नहीं दिया गया । आज स्थिति यह है कि तालाब उथले हो गए है उनमें जलकुंभी है और वे गंदे हैं लोग उसमें निस्तारी तक करने से परहेज कर रहे हैं लेकिन अब इन तालाबों के वास्तव में प्रबंधन की ज्यादा जरूरत है। यदि इनमें जमी मिट्टी निकाल दी जाए और इन्हें गहरा कर दिया जाए तो वर्षा पानी का इनमें भराव किया जा सकता है-जिससे भूजल स्तर भी ठीक होगा तथा आवश्यकता पडऩे पर खेती में सिंचाई भी की जा सकती है। उन्होंने बताया कि राज्य में 38 हजार तालाबों की अभी भी उपस्थिति है लेकिन इनके प्रबंधन को लेकर कोई चिंता नहीं कर रहा है।

यह भी उल्लेखनीय है कि प्राचीन छत्तीसगढ़ में तालाबों की लंबी श्रृंखला होती थी। प्रचीन छत्तीसगढ़ के शहरों रतनपुर में 365, मल्हार में 451तथा सिरपुर में 151 तालाब की अभी भी मौजूदगी इसकी संमृद्ध जल प्रबंधन परंपरा को दर्शाती है। खुद रायपुर शहर में तालाबों को इतना पाटने के बाद भी 52 तालाब वर्तमान में बचे हुए हैं।

श्री शास्त्री कहते हैं कि छत्तीसगढ़ के तालाबों की देखरेख करने वाला कोई नहीं है तालाबों की साफ-सफाई और रख-रखाव कौन करे को लेकर उहापोह की स्थिति है। जलसंसाधन विभाग का कहना है कि तालाब उसके क्षेत्राधिकार में नहीं आते हैं जबकि पंचायत विभाग का कहना है कि उसके पास फंड की कमी है। अब जबकि प्रदेश सूखे की चपेट में आ रहा है तो सबसे जरूरी है कि इन तालाबों के रखरखाव की जिम्मेदारी सक्षम विभाग को सौंपी जाए तथा प्राचीन जल प्रबंधन को अपनाया जाए, क्योंकि राज्य तेजी से क्लाइमेट चेंज के कारण सूखे की गिरफ्त में आ रहा है।

सूखे से निपटने के लिए किए जा रहे कृषि विभाग के प्रयासों पर संचालक प्रताप कृदत्त कहते हैं कि राज्य के 70 प्रतिशत क्षेत्रों में वर्षा पर आधारित खेती होती है इसलिए विभाग कम समय में पकने वाली फसल जैसे इंदिरा बरोनी, आईआर 64 तथा स्वर्णा सब वन जैसी धान की फसलों को किसानों को लगाने की समझाइश दे रहे हैं। यही कारण है कि राज्य में धान का उत्पादन बढ़ा है। उन्होंने भी वर्षा के जल प्रबंधन पर अपनी सहमति जताई है।

कामयाब नहीं श्री पद्धति
राज्य में कुल 27 प्रतिशत खेती सिंचित है जिसमें 18 प्रतिशत नहर सिंचाई क्षेत्र है जबकि 9 प्रतिशत ट्यूबवेल सिंचित क्षेत्र है। धान की श्री पद्धति जिसमें कम पानी में धान का उत्पादन संभव है सिर्फ ट्य़ूबवेल सिंचित क्षेत्र में ही लिया जा सकता है। राज्य की भौगोलिक स्थिति पारंपरिक खेती के लिए ही अनुकूल है इसलिए भी जल प्रबंधन की जरूरत बताई जा रही है।

520 स्टाप डेम और एनीकट
जल संरक्षण के कार्य के तहत विभाग में कार्य किए जाते हैं । वर्तमान में विभाग में 520 स्टाप डेम और एनीकट हैं जिनमें पंप के द्वारा सिंचाई की जाती है। वैसे इनमें निस्तार के लिए पानी उपलब्ध होता है। तालाबों का काम मनरेगा के तहत पंचायत विभाग करता है।
एच.आर.कुटारे
प्रमुख अभियंता, जलसंसाधन

बड़े तालाबों के लिए प्रस्ताव बुलाए गए
राज्य के बड़े सिंचाई लायक तालाबों को विभाग के अंतर्गत लेने के लिए प्रस्ताव बुलाए गए हैं। बाकी छोटे तालाबों की जिम्मेदारी जिला पंचायतों की है।
बृजमोहन अग्रवाल
कृषि एवं जलसंसाधन मंत्री