Sunday 8 January 2017

मैं कैसे निपटता हूं नस्लीय टिप्पणियों से


0 आर्यभट् भट्ट ब्राह्मण ही थे
इस घोर जातिवादी भारतीय समाज में अधिकतर लोग नस्लीय टिप्पणीय हिंसा के शिकार होते हैं, वास्तव में नस्लीय टिप्पणी करने का उद्देश्य स्वयं को श्रेष्ठ साबित करना और प्रकारांतर से सत्ता और समाज में श्रेष्ठ स्थिति साबित कर सत्ता के माल का अधिकतम हिस्सा चट करना होता है। चूंकि पारंपरिक (प्राथमिक) ब्राह्मण हमसे स्वयं को श्रेष्ठ क्रम का मानते हैं (होते नहीं हैं आज सभी के कर्म एक से हैं) इसलिए मेरे स्पष्ट ब्रह्मभट्ट लिखने और स्वयं को ब्राह्मण कहने से उनको तकलीफ होती है। वे समय-समय पर मुझ पर नस्लीय टिप्पणी करते रहते हैं। ऐसा नहीं है कि केवल ब्राह्मण ही नस्लीय टिप्पणी करते हैं। कभी-कभी क्षत्रिय और ओबीसी या एससी-एसटी भी दबे स्वर में पीठ पीछे टिप्पणी करने से नहीं चूकते हैं। ऐसा इसलिए कि वे कहीं न कहीं किसी कारणवश हमारी श्रेष्ठता स्वीकार नहीं कर पाते होंगे। खैर कोई बात नहीं मैं इन नस्लीय टिप्पणियों का अभ्यस्त हो चुका हूं और मैंने इस नस्लीय हिंसा के प्रतिकार के कुछ तरीके विकसित किए हैं।
अपनी बात रखने से पहले मैं मंच पर जाति संबंधी अपने विचार रखना चाहूंगा। मंच पर आदरणीय ओम प्रकाश शर्मा जी द्वारा यह विचार रखा गया है कि मैं भट्ट जाति को राष्ट्रीय परिप्रेक्ष्य में देखता हूं जबकि जातियां क्षेत्रीय स्तर पर विकसित होती हैं। पंड़ित जी ने अपने तर्क के समर्थन में इस बात का भी उल्लेख किया था कि भट्ट विभिन्न प्रांतों में अलग-अलग होते हैं कुछ स्वयं को उपब्राह्मण मानते हैं और कुछ स्वयं को अब्राह्मण मानते हैं, जो स्वयं को उपब्राह्मण मानते हैं वे ब्रह्मभट्ट लिखते हैं या अपने नाम के बाद अन्य ब्राह्मण उपनाम लगाते हैं। पंड़ित जी का यह भी कथन है कि आर्यभट और दूसरे प्रांत के भट्ट एक ब्राह्मण नहीं हैं । वे अपने इस कथन को भी इसी सूत्र से पुष्ट करते हैं। पंडि़त जी ने यह भी विचार रखा है कि भट्ट शब्द भाट से बना है जैसे जाट से जट्ट और भाट से भट्ट।
मैं पूरे सम्मान के साथ यह कहना चाहता हूं कि यदि मैं सभी भट्टों को एक मानता हूं तो उसके पीछे मेरे पास ठोस तर्क है। आपका यह कथन कि जातियां क्षेत्रीय स्तर पर विकसित हुईं हैं एकदम सत्य है। हम पुष्करणा ब्राह्मण, मैथिल ब्राह्मण,बंगाली ब्राह्मण,कन्नड़ ब्राह्मण, छत्तीसगढ़ी ब्राह्मण, उत्तराखंडी या पहाड़ी ब्राह्मण आदि आदि को गिना सकते हैं। ये सभी प्राथमिक ब्राह्मणों की जातियां है लेकिन इस जाति नियम को उपब्राह्मणों पर लागू नहीं किया जा सकता है क्योंकि वे बाद में विकसित हुई जातियां हैं जो कालांतर में सामाजिक विकास या कहें विचलन के परिणाम स्वरूप अस्तित्व में आईं हैं। इसके प्रमाण में शब्दकोश में संस्कृत के जाति सूत्र पर्याप्त हैं। विभिन्न प्रदेशों में ब्राह्मणों की वर्तमान वास्तविक स्थिति को पहचानने के लिए उनके बीच प्रचलित एक और प्रवृत्ति पर भी ध्यान देना पड़ेगा। कई प्रदेशों में विस्थापित शक्ति सम्पन्न ब्राह्मण जातियों ( पुरोहितार्थ अन्य राज्यों में बुलाए गए) में स्थानीय ब्राह्मण जातियां शामिल हो गई हैं या स्वयं को घोषित कर चुकी हैं इसलिए उनमें अब विभेद दिखा पाना मुश्किल होता है। जैसे छत्तीसगढ़ में छत्तीसगढ़ी ब्राह्मण स्वयं को सरयूपारी कहते हैं जबकि सरयू नदी उत्तर प्रदेश की नदी है। वहीं छत्तीसगढ़ में ऋषि आश्रमों की भरमार है फिर भी सभी ब्राह्मण खुद को उत्तर प्रदेश से जोड़ते हैं वास्तव में उत्तर प्रदेश से आए ब्राह्मणों के पास बड़ी-बड़ी जमीन के प्राचीन दान ताम्रपत्र हैं, उनकी जमीनदारियां स्थापित हो गईं थी इसलिए छत्तीसगढ़ी ब्राह्मणों ने भी स्वयं को शक्तिशाली बताने के लिए सरयूपारी घोषित कर दिया जबकि उनके रीति रिवाज सरयूपारीयों से मेल नहीं खाते हैं। ऐसे ही अन्य प्रांतों में भी हुआ होगा, यह एक सहज मानवीय प्रवृत्ति है।
सामाजिक रूप से देखें तो समान कार्य और भ्रष्टत्व ही जाति विकास का आधार है। ऋषियों ने वनों में भगवत आराधना के लिए आश्रम स्थापित किए थे । वे पथभ्रष्ट हो कर गृहस्थ बन गए, उनके वंशज ही ब्राह्मण कहलाए याने ब्राह्मण का अर्थ मात्र ऋषि वंशज हैं। चूंकि सभी प्रदेशों में ऋषि पाए जाते थे इसीलिए सभी प्रदेशों में समान रूप से स्थानीय ब्राह्मण मिलते हैं। इसके साथ ही उनके रंग रूप और संस्कृति भी उसी राज्य के अनुसार होती है। कालांतर में इस जाति का प्रमुख व्यवसाय मंदिरों में देवों की पूजा कर्म और पुरोहिती करना हुआ।
अगर हम देखें तो वर्तमान में चार तरह के ब्राह्मण जातियां दिखाई पड़ती हैं। पहले प्राथमिक ब्राह्मण (विभिन्न प्रांतों के) तथा दूसरे उपब्राह्मण ( ब्राह्मण सहोदर) ये दोनों वर्ग जन्मना ब्राह्मण हैं। ( इनकी व्याख्या मैं पहले कर चुका हूं) जबकि कर्मणा ब्राह्मण में गिरी, गोस्वामी तथा धार्मिक व सामाजिक आंदोलन ने विकसित हुई जातियां जैसे आर्य-समाजी पुरोहित परिवार और गायत्री परिवार के पुजारियों को शामिल किया जा सकता है। इनके अतिरिक्त समाज में कलाकारों का भी एक समूह है जो कला-पारंगत होने के कारण स्वयं के आगे पंडित लगाता है। इनमें यह जरूरी नहीं कि सभी ब्राह्मण वर्ग से संबंधित ही हों। उदाहरण में प्रख्यात बांसुरी वादक पंड़ित हरि प्रसाद चौरसिया को लिया जा सकता है।
उपरोक्त प्रथम तीन समूहों को अलग-अलग क्षेत्रों में मंदिरों का पुरोहित्य होने का गौरव प्राप्त है। जबकि आर्य समाजी और गायत्री परिवार से जुड़े लोग भी उनसे संबंधित समाजिक मंदिरों के पुजारी हैं और बहुत संभव है कि कालांतर में वे भी स्वयं को ब्राह्मण घोषित कर दें। उसी प्रकार कला परांगत व्यक्ति भी आगे चलकर स्वयं को ब्राह्मण घोषित कर सकते हैं।
मेरा तर्क है कि उप-ब्राह्मणों भृगु, अंगिरा और कवि के वंशजों को आप प्राथमिक जातियों के नियमों से कैसे बांध सकते हैं। क्या आप उत्तराखंड के जोशी और महाराष्ट्र के जोशी में विभेद करेंगे जबकि दोनों एक ही सामाजिक नियमों के तहत अस्तित्व में आए हैं। लगता है आपकी दुविधा कवि वंशियों के कहीं ब्राह्मण और कहीं अब्राह्मण होने के कारण है इसका कारण भी भ्रष्टत्व ही है क्योंकि कई तरह के भ्रष्ट ( जिनके पितृ वंश ब्राह्मण नहीं थे) स्वयं को भट्ट लिखने लगे और यह भ्रांतियां उत्पन्न हुईं। मेरा मानना है कि कविवंशी उपब्राह्मण को तथा क्षेत्र वार उनको बांटना गलत है अगर हम ऐसा पूर्वाग्रह पालेंगे तो आप स्वयं को ब्राह्मण भी सिद्ध नहीं कर पाएंगे।
एक बात मैं मंच पर और कहना चाहूंगा कि कुछ लोग आर्यभट् को हममे से अलग बताने का प्रयास करते हैं और हमारे ही लोग उनकी हां में हां मिलाते हैं। मैं यह कहना चाहता हूं कि आर्यभट कोई परग्रही (एलियन) नहीं थे इसी देश मैं जन्म लिए थे तो उनका कोई कुल और कोई वंश भी रहा होगा। आर्यभट् को यदि आप नाम मानते हैं तो परिवर्ती युग में तथा पूर्व युग में भी इस नाम की परंपरा होनी चाहिए थी, लेकिन ऐसा नहीं है। न इनके पहले और न बाद में आर्यभट् नाम सुनने में आता है। जबकि आर्य नाम की सत्ता आज तक विद्यमान है। इससे यह सिद्ध होता है कि ऐसी व्याख्या सिर्फ भ्रम उत्पन्न करने के लिए फैलायी गई है ताकि किसी एक वर्ग विशेष को उनके आत्मगौरव से वंचित किया जा सके। शायद मैं अपनी बात आप तक पहुंचा सका हूं कि आर्य उनका नाम था और भट् उनका आष्पद बाकी इस तरह की व्याख्या का कोई अस्तित्व नहीं है। मैं ऐसे भ्रम फैलाने वाले व्यक्तियों को चुनौती देता हूं कि आर्यभट् अगर उनमें से थे तो अपना उपनाम भट् रख कर दिखाएं। अन्यथा शब्दों की बकवास कर भ्रम फैलाने की कोशिश न करें। हमारा साहित्यिक, राजनीतिक और समाजशास्त्रीय अध्ययन इतना भी कमजोर नहीं है लोगों की वास्तविक मंशा न समझ सकें।
रही बात भट्ट शब्द की उत्पत्ति की तो भट्ट शब्द भ्रष्ट से उत्पन्न हुआ है। भ्रष्ट ब्राह्मण को मुख सुख के कारण (जीभ उलटाने वाली ध्वनियां) र और आधा ष् को हटाकर भट ब्राह्मण किया गया । बाद की सदियों में बाद लोगों ने उपनाम को अलंकृत कर भट् से भट्ट बना लिया। आज भी बंगलूरू में भट् ब्राह्मण (प्राथमिक उपब्राह्मण परिवार) पाए जाते हैं । इनके प्रतिनिधि के रूप में बालीवुड के तन्मय भट् के लिया जा सकता है।
इसीलिए मैं पूरी दृढ़ता से कहता हूं कि हमसे आर्यभट्, भास्कराचार्य तथा वेद-मीमांसक भट्ट ब्राह्मणों की विरासत को कोई नहीं छीन सकता है।
अब मैं अपने मूल प्रश्न पर आऊंगा मेरे ऊपर जो नस्लीय टिप्पणी होती है उसमें प्रमुख हैं भट्ट ब्राह्मण नहीं होते हैं। दूसरा आप लोग बाद में बने हुए ब्राह्मण हैं। तीसरे चारण और भाट विरुदावली गायन करने वाले होते हैं। और चौथा भाट भीख मांगने वाली जाति है जो अपनी आजीविका के लिए भिक्षाटन करती है।
इसके प्रतिकार में पहले तो मैं यह बताता हूं कि भट्ट और भाट एक नहीं हैं और फिर कहता हूं कि अगर भट् ब्राह्मण नहीं हैं तो बताइए आर्यभट् को आप क्या मानते हैं। इसके जवाब में सामने वाला ऊं आं करने लगता है।क्योंकि आर्यभट् एक इतना चर्चित नाम है कि कोई उन्हें ब्राह्मण से खारिज कर ही नहीं पाता है। उसके बाद मैं पूरी अपनी वंश परंपरा वेद-मीमांसक पृष्ठभूमि, कुमारिल भट्ट जी के नाम के साथ चढ़ाई कर देता हूं। (वास्तव में कुमारिल भट्ट जी के बलिदान के बारे में विशेष कोई नहीं जानता है) उसके बाद मेरी विजय होती है।
रही बात भिक्षाटन की तो सुदामा का उदाहरण भी पर्याप्त होता है। औरन को धन चाहिए बावरि बाम्हन को धन केवल भिक्षा। इसके साथ वर्तमान में रीवांचल की प्राथमिक ब्राह्मणों की झोली चलाने की भी यादे दिलाने से नहीं चूकता हूं। साथ ही विरुदावली गायन की बात तो कहता हूं यह एक कौशल है उसमें हर वो जाति जो पढ़ने लिखने में प्रवीण होती है भाग लेती है। चाहें ते आज भी समाज को झांक लें। इस तरह के वाक युद्ध में मैं आज तक विजयी होता रहा हूं।
मैं एक बात और कहना चाहूंगा कि मंच पर कुछ युवा मुझसे प्रामाणिक दस्तावेजी इतिहास की मांग करते हैं। तो क्या कभी आपने पूछा कि जो लोग स्वयं को विशिष्ट (भगवान राम के गुरु) का अंश बोलते हैं उनके पास कौन से ऐतिहासिक दस्तवेज हैं या वे उनकी कौन सी पीढ़ी में आते हैं। कहने का मतलब साफ है समाज में वाचिक परंपरा के तहत जातियों का इतिहास संरक्षित रहता है। उसकी सूचनाएं मिल सकती है लेकिन ठोस साक्ष्य नहीं। जातियों में समय-समय पर ऊंच नीच के हमले भी होते रहे हैं और सामाजिक आर्थिक तथा राजनैतिक उत्थान-पतन के साथ जातियों की स्थिति भी बदलती रहती है। इसके कोई ऐसे ऐतिहासिक प्रमाण नहीं दिए जा सकते हैं। अब आप चाहें तो स्वयं को आर्य या कुमारिल का अंश कह सकते हैं या फिर स्वयं को स्थानीय ब्राह्मणों से जोड़ते हुए सेकेंडग्रेड ब्राह्मण घोषित करें आपकी मर्जी। मैं स्वयं को आर्य और कुमारिल का अंश कहलाना पसंद करता हूं।
अंत में समाज से मेरा इतना निवेदन है कि समाज में गलत लकीरें मत खींचिए और सही लकीरें मत काटिए। डेढ़ हजार साल पहले छूटी जाति में मिलने का सपना झुक कर देखने से ज्यादा अच्छा है समानधर्मी सगोत्रीय भट्ट ब्राह्मणों से जुड़ें चाहे वे किसी भी प्रांत के भट्ट ब्राह्मण क्यों न हो, नहीं तो या कम से कम उनके प्रति अनुराग जरूर रखें क्योंकि आज नहीं तो कल वे आपमें ही मिलेंगे । आपको इस संचारक्रांति के युग में केवल प्रेम से बाहें फैलाना है। देश बदल रहा है क्या हम राष्ट्रीय स्तर पर एक नहीं हो सकते।

Saturday 21 May 2016

भट्ट ब्राह्मण कैसे


लोगों ने फिल्म बाजीराव मस्तानी और जी टीवी का प्रसिद्ध धारावाहिक झांसी की रानी जरूर देखा होगा जो भट्ट ब्राह्मण राजवंश की कहानियों पर आधारित है। फिल्म में बाजीराव पेशवा गर्व से डायलाग मारता है कि मैं जन्म से ब्राह्मण और कर्म से क्षत्रिय हूं। उसी तरह झांसी की रानी में मणिकर्णिका ( रानी के बचपन का नाम) को काशी में गंगा घाट पर पंड़ितों से शास्त्रार्थ करते दिखाया गया है। देखने पर ऐसा नहीं लगता कि यह कैसा राजवंश है जो क्षत्रियों की तरह राज करता है तलवार चलता है और खुद को ब्राह्मण भी कहता है। अचानक यह बात भी मन में उठती होगी कि क्या राजा होना ही गौरव के लिए काफी नहीं था, जो यह राजवंश याचक ब्राह्मणों से सम्मान भी छीनना चाहता है।
पर ऊपर की आशंकाएं निराधार हैं वास्तव में यह राजवंश ब्राह्मणों का है और इस राजवंश की स्थापना भी दक्षिणा से हुई है।  मराठा साम्राज्य के संस्थापक मराठा शासक शिवाजी भोसले के 1674 में छत्रपति की उपाधि ग्रहण करने के समय उनके क्षत्रिय होने पर विवाद हुआ था तब काशी के महान पंडित विश्वेक्ष्वर भट्ट (जिन्हें गागा भट्ट भी कहा जाता है) ने शास्त्रार्थ कर शिवाजी को क्षत्रिय प्रमाणित किया था और उनका राज्याभिषेक करवाया था। उस समय विश्व की सबसे बड़ी दक्षिणा पं.गागा भट्ट को दी गई थी। यह दक्षिणा ही अपने आप में एक छोटे राज्य के बराबर थी। दक्षिणा से स्थापित हुआ यह देश का पहला छोटा ब्राह्मण राज्य था। मराठा राज्य के आधीन रहते हुए इसी छोटे राजवंश ने अपने को विकसित किया। तत्कालीन समय में उत्तर भारत से भट्ट ब्राह्मणों का बड़ी संख्या में महाराष्ट्र माइग्रेशन हुआ। इसी राजवंशी ब्राह्मणों में सन 1700 से 1740 के बीच बाजी राव पेशवा मराठा सेनापति हुए जो अपनी बहादुरी के लिए बहुत प्रसिद्ध थे।  उन्होंने 41 लड़ाइयां लड़ीं जिसमें एक में भी वे पराजित नहीं हुए। इसी राजवंश ने आगे चलकर अपना विस्तार किया और उसकी एक शाखा में आगे चलकर  बुंदेलखंड के राजा गंगाधर राव नेवालकर की पत्नी (1828-1858) झांसी की रानी लक्ष्मी बाई हुईं जिन्होंने अंग्रेजों के विरुद्ध सन 1857 की लड़ाई लड़़ी और वीरगति को प्राप्त हुईं। आज पूरा विश्व उन्हें नारी सशक्तिकरण का प्रतीक मानता है। उनकी विद्वता की मिसाल यह थी कि उन्होंने न केवल अंग्रेजों को सामान्य शास्त्रार्थ में परास्त किया था बल्कि खुद अंग्रेजों की अदालत में भी उनके शासन को चुनौती दी थी।
अब हम अपने मूल प्रश्न पर आते हैं कि आखिर भट्ट ब्राह्मण कैसे जिन पर कई लेखों में विपरीत टिप्पणियां अंकित हैं। संस्कृत-हिन्दी कोश (वामन शिवराम आप्टे) में भट्टों की उत्पत्ति के बारे में एक सूत्र दिया गया है-क्षत्रियाद्विप्रकन्यायां भट्टो जातो..नुवाचकः। इसकी व्याख्या में आगे पढ़ने पर पता चलता है कि विधवा ब्राह्मणी और क्षत्रिय पिता से उत्पन्न जाति भट्ट हुई। अगर इसे सत्य मान लिया जाए तो इस संयोग से उत्पन्न जाति ब्राह्मण नहीं बल्कि क्षत्रिय होगी। जबकि ऐसा कदापि नहीं है सभी भट्ट स्वयं को ब्राह्मण कहते हैं और तदानुसार आचरण भी करते हैं। वास्तव में भट्टों की उत्पत्ति के लेख से दुर्भावना पूर्वक छेड़छाड़ की गई है। ऊपर दिए गए सूत्र का क्रम परिवर्तित किया गया है जिसके कारण भ्रम की स्थिति निर्मित हुई है और जिससे उसके बाद की कड़ियां नहीं जुड़ती हैं। भट्ट ब्राह्मण वंश में पीढ़ी दर पीढ़ी हस्तांतरित होने वाली जानकारी में यह क्रम ब्राह्मण पिता और क्षत्रिय माता का है। इसके ऐतिहासिक प्रमाण भी हैं। वंशानुगत जानकारी के अऩुसार प्राचीन काल में युद्ध के दौरान बड़ी संख्या में क्षत्रिय मारे जाते थे। उनकी युवा विधवाओं को ब्राह्मणों को उपपत्नी के रूप में दे दिया गया था। इस तरह इस जाति का प्रादुर्भाव युद्धों की त्रासदी से हुआ है। यह परंपरा किस सदी तक जारी रही इस बारे में जातीय इतिहास मौन है। जबकि उपरोक्त छेड़छाड़़ के बाद जो स्थितियां बन रहीं है इसका कोई प्रमाणिक ऐतिहासिक घटनाक्रम से कोई जुड़़ाव नहीं है। इतिहास में कभी भी ऐसी कोई घटना दर्ज नहीं है जिसमें युवा ब्राह्मणों की बड़ी संख्या में मृत्यु हुई हो और बड़ी संख्या में युवा ब्राह्मणियां विधवा हुई हों जिन्हें क्षत्रियों ने पत्नियों के रूप में स्वीकारा हो तथा नई जाति विकसित हुई हो। वैसे भी प्राचीन भारतीय समाज में प्रतिलोम विवाह वर्जित थे। इसके अलावा मान भी लें कि एकआध घटनाएं किसी कारणवश हुईं भी हों तो उससे कम से कम जाति विकसित नहीं हो सकती है।
शब्दकोश में भट्ट के अन्य अर्थों में 1 प्रभु ,स्वामी (राजओं को संबोधित करने के लिए सम्मान सूचक उपाधि)2 विद्वान ब्राह्मणों के नामों के साथ प्रयुक्त होने वाली उपाधि 3 कोई भी विद्वान पुरुष या दार्शनिक 4 एक प्रकार की मिश्र जाति जिनका व्यवसाय भाट या चारणों का व्यवसाय अर्थात राजाओं का स्तुति गान है। 5 भाट, बंदीजन।
उपरोक्त अर्थ में देखते हैं कि एक ही शब्द के अर्थ में चार जातियों को एक साथ लपेट दिया गया है भट्ट, भाट, चारण और बंदीजन। भट्ट स्वयं को कुलीन ब्राह्मण घोषित करते हैं वे सम्पन्न हैं उनमें डाक्टर, इंजीनियर,वैज्ञानिक से लेकर मंत्रियों तक के पद पर लोग सुशोभित हैं, दूसरी तरफ चारण जाति मुख्यतः राजस्थान में रहती है। ये चारण जाति स्वयं को क्षत्रिय कुल से संबंधित बताती है, इसके अलावा वे स्वयं को विद्वान बताते हैं तथा उनका अपना इतिहास है। बंदीजन नामक जाति वर्तमान में दिखाई नहीं पड़ती है और रहा सवाल भाट का तो वह पिछड़ी जाति में शामिल पाई जाती है तथा कहीं-कहीं इसके याचक वर्ग से होने के तो कहीं पर उनके द्वारा खाप रिकार्ड रखने की जानकारी मिलती है। यह जाति छोटे-मोटे व्यवसाय धंधे करती है। इसके अलावा इसके पास बड़ी जमीनें भी नहीं हैं। भाट स्वयं के ब्राह्मण होने का कोई दावा तक प्रस्तुत नहीं करते हैं। अब सवाल उठता है कि जब भट्ट का मतलब विद्वान ब्राह्मणों की उपाधि है तो फिर उस नाम की जाति निम्नतर कैसे हो गई। वास्तव में भट्टों को षड़यंत्रपूर्वक भाट में शामिल बता कर अपमानित करने का प्रयास किया जाता है ताकि उन्हें बदनाम कर उनके समाज में वास्तविक स्थान से पद्-दलित किया जा सके।
भट्टों की जातीय अस्मिता को कैसे तोड़ा मरोड़ा गया है इसका प्रमाण स्वयं शब्द कोश में ही मिलता है। शब्दकोश में भट्टिन शब्द के अर्थ देखें 1 (अनभिषिक्त) रानी, राजकुमारी,(नाटकों में दासियों द्वारा रानी को संबोधन करने में बहुधा प्रयुक्त)2 ऊंचे पद की महिला 3 ब्राह्मण की पत्नी।
उसी प्रकार शब्दकोश का एक और शब्द को लें ब्राह्मणी अर्थ है-1 ब्राह्मण जाति की स्त्री 2 ब्राह्मण की पत्नी 3 प्रतिभा (नीलकंठ के मतानुसार बुद्धि).3 एक प्रकार की छिपकली 4 एक प्रकार की भिरड़ 6 एक प्रकार की घास।
ऊपर के दोनों शब्दों से ज्ञात होता है कि भट्टिन ऐसी रानी है जो वर्तमान में राजकाज से बाहर है या राजकुमारी है और वो ब्राह्मण की पत्नी है। जबकि ब्राह्मणी का सीधा अर्थ ब्राह्मण की पत्नी से है। अब आप भट्टिन का कितना भी अर्थ निकालने की कोशिश करिए भट्टिन भट्ट की पत्नी नहीं है अगर वह भट्ट की पत्नी है तो पदच्युत रानी नहीं है न राजकुमारी है और न आपके भट्ट की उत्पत्ति सूत्र के अनुसार ब्राह्मण की पत्नी है। जबकि आप किसी भी ब्राह्मण की पत्नी को आज भी भट्टिन नाम से नहीं पुकार सकते हैं।
इसका सीधा अर्थ यह हुआ कि भट्ट ब्राह्मणों के पारंपरिक वाचिक इतिहास में जो भट्टों की उत्पत्ति की बात कही जाती है वह सतप्रतिशत सत्य है और शब्दकोश में जो भट्टिन शब्द के अर्थ आए हैं वास्तव में वो प्राचीन काल के ब्राह्मण की दूसरी-पत्नी के संबंध में है। इस प्रकार राजवंशी भट्टिन से उत्पन्न जातक ही भट्ट कहलाए। चूंकि भट्टों का मातृपक्षा राजवंशी रहा है इसलिए यह जाति स्वयं के नाम के साथ राज सूचक शब्द राव लगाना अपनी शान समझती है। इस तरह कहा जा सकता है कि भट्ट अपनी उत्पत्ति से ही कुलीन, सम्पन्न व राजवंशी ब्राह्मण जाति है जिनका भाटों से दूर-दूर का संबंध नहीं है। केवल दो ब्राह्मण समुदायों के बीच चले सत्ता संघर्ष के कारण इस तरह का भ्रम फैलाया गया है।
आइए देखते हैं भट्टों के विरुद्ध वो ऐतिहासिक कारण क्या हैं जिनके कारण उन्हें अपमानित करने के लिए भ्रम फैलाया गया। वास्तव में प्राचीन काल में विधवा राजकन्याओं और ब्राह्मण पिता से उत्पन्न राजवंशी ब्राह्मण जाति ने बाद में पिता की वृत्ति में अपना उत्तराधिकार मांग लिया। तब समाजिक बंटवारे में उन्हें पुरोहिती कर्म से पृथक करते हुए वेदों का अध्ययन, ज्योतिष, धर्मशास्त्रों का प्रचार और केवल शिव तथा शिव-परिवार के मंदिरों में पुजारी बनने का अधिकार दिया गया। इसके वर्तमान उदाहरण में नेपाल के पशुपतिनाथ के प्रमुख पुजारी परिवार विजेन्द्र भट्ट तथा इंदौर के खजरानें गणेश मंदिर भट्ट पुजारियों का नाम लिए जा सकते है। महाराष्ट्रीय देशस्थ भट्ट ब्राह्मणों का गणेश उपासना के प्रति आकर्षण भी इसी ऐतिहासिक सामाजिक व्यवस्था का परिणाम है। इस परंपरा के अन्य अवशेष देखें तो उज्जैन महाकाल मंदिर में भी भट्ट ब्राह्मणों की पुरोहितों की भीड़ में तख्तियां भी देखीं जा सकती हैं। इसके अतिरिक्त इस बात की जानकारी पुरानी पीढ़ी से या फिर कई पुराने रिकार्ड से भी मिल सकती है।
भट्ट ब्राह्मणों का समाज में योगदान
राजवंशी भट्ट ब्राह्मणों ने वेदों के अध्ययन के अलावा आगे चलकर वेदों की मीमांसा (वैदिक वाक्यों में प्रतीयमान विरोध का परिहार करने के लिये ऋषि-महर्षियों द्वारा की गई छानबीन ) में महत्वपूर्ण योगदान दिया है। जिन प्रमुख आचार्यो ने टीकाओं या भाष्यों की रचना की उनमें हैं-
1. सूत्रकार जैमिनि, 2. भाष्यकार शबर स्वामी 3. कुमारिल भट्ट 4. प्रभाकर मिश्र 5. मंडन मिश्र,6. शालिकनाथ मिश्र 7. वाचस्पति मिश्र 8. सुचरित मिश्र 9. पार्थसारथि मिश्र, 10. भवदेव भट्ट,11 भवनाथ मिश्र, 12. नंदीश्वर, 13. माधवाचार्य, 14. भट्ट सोमेश्वर, 15. आप देव,16. अप्पय दीक्षित, 17. सोमनाथ 18. शंकर भट्ट, 19. गंगा भट्ट, 20. खंडदेव, 21. शंभु भट्ट और 22. वासुदेव दीक्षित शामिल हैं।
 इस तरह हम देखते हैं कि 22 में से 6 भट्ट आचार्यों ने वेदों की मीमांसा की है।
भट्ट ब्राह्मणों के महापुरुषों की उपस्थिति ईसा पूर्व 5 वीं शताब्दी से मिलनी शुरू हो जाती है जिसमें सर्वप्रथम आते हैं-   आर्यभट्ट( 476-550 सीई)-नक्षत्र वैज्ञानिक जिनके नाम से भारत का प्रथम उपग्रह छोड़ा गया। वाग्भट्ट(6वीं शताब्दी)-आयुर्वेद के प्रमुख स्तंभ दिनचर्या, ऋतुचर्या, भोजनचर्या, त्रिदोष आदि के सिद्धान्त उनके गढ़ हुए हैं। बाण भट्ट (606 ई. से 646 ई.)-संस्कृत महाकवि इनके द्वारा लिखित कादंबरी संस्कृत साहित्य की प्रथम गद्य रचना मानी जाती है। कुमारिल भट्ट( 700 ईसापूर्व )-सनातन धर्म की रक्षा के लिए जिन्होंने आत्मोत्सर्ग किया। भवभूति (8वीं शताब्दी)- संस्कृत के महान कवि एवं सर्वश्रेष्ठ नाटककार। आचार्य महिम भट्ट(11 वीं शताब्दि)-भरतमुनी के नाट्यशास्त्र के प्रमुख टीकाकार आचार्य। चंद बरदाई (1149 – 1200)-पृथ्वीराज चौहान के मित्र तथा राजकवि जिन्होंने चौहान के साथ आत्मोत्सर्ग किया। जगनिक (1165-1203ई.)-विश्व की अद्वतीय रचना आल्हा के रचयिता जिन्होंने ऐतिहासिक पात्रों को देवतातुल्य बना दिया। , भास्कराचार्य या भाष्कर द्वितीय (1114 – 1185)- जिन्होंने अंक गणित की रचना की। वल्लभाचार्य(1479-1531)- पुष्टिमार्ग के संस्थापक तथा अवतारी पुरुष। सूरदास( 14 वीं शताब्दी)- साहित्य के सूर्य, साहित्य में वात्सल्य रस जोड़ने का गौरव। राजा बीरबल(1528-1586)-असली नाम महेश दास भट्ट मुगल बादशाह अकबर के नौ रत्नों में प्रमुख। गागा भट्ट(16 वीं शताब्दी)- छत्रपति शिवाजी महराज के राजतिलक कर्ता। पद्माकर भट्ट(17 वीं शताब्दी)-रीति काल के ब्रजभाषा के महत्वपूर्ण कवि। तात्या टोपे (1814 - 1859)-1857 क्रांति के प्रमुख सेनानायक। बाल गंगाधर तिलक ( 1856-1920)-प्रमुख नेता, समाज सुधारक और स्वतन्त्रता सेनानी। पं. बालकृष्ण भट्ट(1885-1916)-भारतेंदु युगीन निबंधकारों में विशिष्ट स्थान। श्री राम शर्मा आचार्य( 1911-1990)- गायत्री शक्तिपीठ के संस्थापक। पं.राधेश्याम शर्मा ( दद्दा जी, 20 वीं शताब्दी)-पथरिया मध्यप्रदेश निवासी पूर्व केन्द्रीय मंत्री स्व. विद्याचरण शुक्ल के गुरु जिनके नाम से उनके फार्म हाउस का नाम है।

आज पूरे भारत में भट्ट ब्राह्मणों की उपस्थिति कश्मीर से कन्याकुमारी तक और गुजरात से लेकर बंगाल तक है। ब्राह्मणों में भट्टों जाति सबसे बड़ी है। रही बात राजनैतिक स्थिति की तो कई राज्यों में भट्ट ब्राह्मणों को बिना मंत्रिमंडल में शामिल किए मंत्रिमंडल की कल्पना भी नहीं की जा सकती है उसमें उत्तराखंड, गुजरात, पं.बंगाल शामिल हैं जबकि महाराष्ट्र में स्थिति इसके ठीक उलट है वहां भट्ट ब्राह्मणों का मंत्रिमंडल में वर्चस्व होता है और बाकी की जातियां विरोध में ऩजर आती हैं। इस तरह हम कह सकते हैं कि भट्ट जन्म से ही कुलीन एवं सम्पन्न ब्राह्मण थे और हैं। हमे गर्व है कि हम भट्ट हैं जिनका इतना चमकदार इतिहास है।

Monday 26 October 2015

नया राजधानी तितली पार्क पैसों की बजह से पिछड़ा

 नया रायपुर के बागों में नहीं हुआ तितलियों का बसेरा
रायपुर। नया रायपुर सेंट्रल पार्क लैण्ड स्केप आर्किटेक्ट की माने तो सेन्ट्रल पार्क का बटरफ्लाई पार्क फण्ड की कमी से पिछड़ गया है। जबकि एनआरडीए की प्राथमिकता सिर्फ सेन्ट्रल पार्क है। सेंट्रल पार्क के अन्य घोषित संरचना बटरफ्लाई जोन,बर्ड आइवरी तथा टाय ट्रेन को बाद में विकसित करने के लिए रखा गया है।

राज्य ने नया रायपुर को इक्कीसवीं सदी का अत्याधुनिक नगर बसाने की घोषणा की है इसके लिए कई तरह के लोक लुभावन संरचनाएं बनाने की भी योजना है। इन्हीं संरचना में एक है बटरफ्लाई पार्क। राजधानी के सेंट्रल पार्क में ढाई एकड़ में यह बटरफ्लाई पार्क बनाना है लेकिन सेन्ट्रल पार्क को बनाने वाली कम्पनी मडव कल्संटेंट के विश्वास मडव ने बताया कि यह पार्क फण्ड की कमी के चलते पिछड़ गया है। उन्होंने बताया कि सिंगापुर के बटरफ्लाई माडल का सस्ता संस्करण यहां बनाने की योजना है इस योजना में हाई मास्क लाइट खंबों की ऊंचाई के सहारे जाली का एक बंद नेट हाउस बनाया जाएगा जिसके अंदर तितलियों के पसंदीदा फूल तथा पौधे विकसित किए जाएंगे। इस नेट हाउस में प्रदेश तथा देश की विभिन्न प्रजातियों की तितलियों को ला कर छोड़ा जाएगा। यह पार्क एक तरह से पार्क के साथ ही साथ तितलियों का संरक्षण स्थल भी होगा।
फिलहाल नया रायपुर में अब शीतऋतु ने दस्तक दे दी है। नया रायपुर के बागों में फूल भी खिले हैं परंतु एक्का-दुक्का ही तितली ही उड़ती दिख रही है। अभी भी नया रायपुर में तितलियों का बसेरा नहीं हुआ है। वैसे सेंट्रल पार्क में ढाई से तीन सौ सैलानी प्रतिदिन सैर करने पहुंच रहे हैं।

फण्ड की कमी के चलते रुका काम
फंड की कमी तथा सेन्ट्रल पार्क के बीच के कुछ जमीन विवाद के कारण सेन्ट्रल पार्क के बटरफ्लाई पार्क का मामला अटक गया है। इन समस्याओं के समाधान के बाद उसे विकसित किया जाएगा।
विश्वास मडव
लैंड स्केप आर्किट्रेक्ट, मडव कंसल्टेंट
09819350352

Wednesday 21 October 2015

धान के कटोरे में बासमती का भोग


 प्रदेश में साढ़े 36 लाख हेक्टेयर में धान का उत्पादन

रायपुर।  छत्तीसगढ़ अपने चावल की विविधता, स्वाद तथा सुगंध के लिए जाना जाता है। यहां उत्पादित होने वाला चावल बच्चों के लिए भी सुपाच्य है वहीं शुगर के मरीजों के लिए भी पथ्य है लेकिन इसके बाबजूद प्रदेश के समारोहों में बासमती का पुलाव और बिरयानी खिलाई जाती है। बासमती चावल को प्रदेश में भी स्टेटस सिंबल का दर्जा मिला हुआ है।
उल्लेखनीय है कि राज्य निर्माण के बाद प्रदेश ने व्यापारिक एवं औद्योगिक क्षेत्र में ऐसी कोई उपलब्धि हासिल नहीं जिससे उसे देश तथा विदेश में विशेष ख्याति हासिल हो सके जबकि प्रदेश में ऐसे कई क्षेत्र हैं जिस पर फोकस किया जाता तो राष्ट्रीय एवं अतर्राष्ट्रीय स्तर पर प्रसिद्धि मिल सकती थी। इन विशेष क्षेत्रों में राज्य के लोहा,हीरा तथा चावल को गिनाया जा सकता है। राज्य अभी तक अपने किसी उत्पाद की ब्रांडिंग करने में असमर्थ रहा है।
इंदिरा गांधी कृषि विश्वविद्यालय के शस्य जीव द्रव्य विभाग के प्रभारी डा.सरावगी बताते हैं कि छत्तीसगढ़ का चावल बासमती की तुलना में अधिक सुगंधित होता है।  यहां का चावल बासमती की तुलना में कम लंबा होता है लेकिन कोमल होता है इसलिए छत्तीसगढ़ के चावल को भरपेट खाया जा सकता है। वहीं बासमती को खाने के बाद थोड़ा सा स्वाद के लिए लिए जाने की परंपरा है। बासमती में कम एमाइलेज (स्टार्च) होने के कारण इसे अधिक मात्रा में नहीं खाया जा सकता है यह रूखा होता है। छत्तीसगढ़ ने पिछले दिनों देश की पहली हाई जिंक राईस वाली न्यूट्रिन रिच किस्म जारी की है। इसके अलावा लो ग्लाइसेमिक इंडेक्स के कारण यहां की एक स्थानीय धान की किस्म चपटी गुरमटिया को शुगर के मरीजों के लिए उपयुक्त पाया गया है।
एग्रीकान के अध्यक्ष डा.संकेत ठाकुर कहते हैं कि सरकार ने राज्य में दाना-दाना चावल खरीदने की योजना लाई थी तो सभी किसान संकर किस्मों के धान उत्पादन को आगे आए क्योंकि संकर किस्मो की पैदावार अधिक आती है। राज्य में होने वाली सरकारी खरीद के कारण धान का उत्पादन एक संरक्षित कैश क्राप बन गया था।  इस योजना में पतले और मोटे चावल के भाव में ज्यादा अंतर नहीं होने के कारण भी किसान सुगंधित चावल की किस्मों को उगाने में हतोत्साहित हुए आज सिर्फ सुगंधित चावल सरगुजा तथा जशपुर क्षेत्र में बोया जाता है। राज्य में सुगंधित धान लगाने का रकबा अब मात्र एक लाख हेक्टेयर रह गया है। वर्तमान में जबकि राज्य की नीति बदल गई है सरकार किसानों से उसकी उपज का 15 क्विंटल प्रति एकड़ के हिसाब से धान खरीद रही है तो ऐसे में फिर से किसान अगर अच्छी कीमत मिले तो सुगंधित धान पैदावार की ओर लौट सकता है। 
छत्तीसगढ़ राइस मिल एसोसिएशन के अध्यक्ष योगेश अग्रवाल ने कहते हैं कि छत्तीसगढ़ पहले की तरह धान का कटोरा  नहीं रहा यहां के पतले चावल की आपूर्ति अब महाराष्ट्र से आने वाले पतले चावल से हो रही है जिसकी क्वालिटी कमतर होने के बावजूद राजधानी में व्यापारियों द्वारा बेचा जा रहा है। छत्तीसगढ़ का चावल पूरे देश में अपनी मिठास और सुगंध के लिए जाना जाता है। जहां तक बासमती चावल को सम्मान मिलने की बात है वह देखने में सुन्दर होता है आजकल शो का जमाना है इसलिए यहां भी पार्टियों में उसे परोसते हैं।
कृषि विभाग के संचालक प्रताप कृदत्त कहते हैं कि छत्तीसगढ़ का उत्पादित सुगंधित चावल मेट्र के मांग की ही पूरा नहीं कर पाता तो उसकी विदेश के लिए ब्रांडिंग कैसे की जाए। प्रदेश में साढ़े 36 लाख हेक्टेयर में धान का उत्पादन लिया जाता है जिसमें सुगंधित धान का हिस्सा बहुत कम है। सुगंधित चावल की ब्रांडिंग के लिए छत्तीसगढ़ शासन कोई योजना नहीं ला रहा है।
इस मुद्दे पर बलरामपुर कृषि विज्ञान केन्द्र के जीराफूल उत्पादन परियोजना के प्रभारी डा.अजय त्रिपाठी कहते हैं कि बासमती को सम्मान सिर्फ इसलिए मिला रहा है क्योंकि यह सबसे पहले अंतर्राष्ट्रीय बाजार में गया जिसके कारण टीवी तथा अन्य प्रचार माध्यमों में विज्ञापनों के माध्यम से इसे स्टेटस सिंबल बनने का मौका मिला, हमारा चावल अभी बाजार में गया ही नहीं है अन्यथा अभी भी वह अतर्राष्ट्रीय बाजार में छाने का माद्दा रखता है। जरूरत है तो सिर्फ सुगंधित चावल उत्पादक संघों का फेडरेशन बनाकर आक्रामक मार्केटिंग की, रही बात सुगंधित किस्म के धान के कम उत्पादन की तो यह उसकी अच्छी कीमत से फायदे में तब्दील की जा सकती है। उन्होंने कहा कि सुगंधित धान की खेती के कैश क्राप में तब्दील करने के लिए सुगंधित धान उत्पादन ही नहीं बल्कि किसानों के द्वारा उसका चावल बना कर खुद मार्केटिंग करने की जरूरत है। जिसका सफल प्रयोग हम बलरामपुर के जीराफूल उत्पादन परियोजना में कर रहे हैं।

Monday 19 October 2015

चावल जीराफूल की अंतर्राष्ट्रीय बाजार में दस्तक


0 दुबई के ट्रेडर ने एमओयू करने किया संपर्क

रायपुर। छत्तीसगढ़ का सुगंधित चावल जीराफूल को स्थानीय बाजार में जहां अच्छा प्रतिसाद मिल रहा है, वहीं उसकी विदेश में भी मांग की संभावना तलाशी जा रही है। राज्य ने अपने सहकारी उत्पाद को विदेशों में पापुलर करने के लिए नई दिल्ली में शुक्रवार से आयोजित राइस इंटरनेशनल कांफ्रेंस में प्रस्तुत किया है।
जानकारी के अनुसार छत्तीसगढ़ की टोपोग्राफी (भौगोलिक संरचना) में बस्तर और सरगुजा की निचली जमीन सुगंधित चावल उत्पादन के लिए उपयुक्त है इसलिए सरगुजा में पारंपरिक जीराफूल की खेती को पिछले साल से व्यापारिक रूप दिया गया है। जिला बलरामपुर कृषि विज्ञान केन्द्र के डा.अरुण त्रिपाठी ने बताया कि सरकारी प्रयासों से वर्तमान में जिले के धान उत्पादित 90 हजार हेक्टेयर रकबे में से मात्र 7 हजार हेक्टेयर में 40-45 किसानों द्वारा जीरा फूल सुगंधित चावल का उत्पादन शुरु कराया गया है। इस जीराफूल सुगंधित धान उत्पादन में 9 स्वसहायता समूह कार्यरत हैं जिसमें से 3 स्वसहायता समूह सीधे विज्ञान केन्द्र से जुड़े हैं। इन समूहों द्वारा उत्पादित जीराफूल को विभिन्न एजेंसियों एवं संस्थानों के माध्यम से विक्रय किया जा रहा है। उन्होंने बताया कि इस नई पहल से स्वसहायता समूह से जुड़े सभी किसान व्यापारी में तब्दील हो चुके हैं वे अपने उत्पादन का स्वयं मूल्य निर्धारण करते हैं और अपने उत्पाद जीराफूल को सीधे उपभोक्ताओं को बेच देते हैं। किसानों को जीराफूल उत्पादन में 30 रुपए प्रतिकिलो की लागत पड़ती है जिसे किसान 60 रुपए प्रतिकिलो बेच रहे हैं गुणवत्ता के कारण उसका चावल हाथों हाथ बिक रहा है जिसका सीधा लाभ किसानों को मिल रहा है।
श्री त्रिपाठी कहते हैं कि जीराफूल सरगुजा का पारंपरिक चावल था लेकिन दो दशक में इसकी खेती में तेजी से गिरावट आई थी, किसान हाईब्रीड धान के उत्पादन के लिए प्रेरित हुए थे लेकिन धान लगाने का ज्यादा खर्च और हर साल नए बीज खरीदने के खर्चीले सौदे के कारण पिछले दो साल से किसान जीराफूल उत्पादन की ओर मुड़े हैं। इन किसानों ने कृषि विज्ञान केन्द्र के माध्यम से पारंपरिक चावल उत्पादन परियोजना से जुड़ कर जीराफूल का उत्पादन शुरु किया है। पिछले दो सालों में बलरामपुर जिले के किसानों का जीराफूल उत्पादन पहले की तुलना में दो गुना रकबा हो गया है।
श्री त्रिपाठी का कहना है कि स्वसहायता समूह को राज्य सरकार का भरपूर सहयोग मिल रहा है। इसके चलते ही किसानों का उत्पाद राजधानी के माल से लेकर अन्य एजेंसियों में बिक रहा है। चावल की गुणवत्ता को देखते हुए दुबई का अंतर्राष्ट्रीय ट्रेडर ओजोन कन्सल्टेंट राज्य से 100 टन चावल प्रतिवर्ष का एग्रीमेंट करने को तैयार है वो हमारे उत्पादन की सीमां 100 टन छूने का इंतजार कर रहा है। जबकि राज्य शासन के सहयोग से पिछले शुक्रवार से शुरु हुए नई दिल्ली के इंटरनेशनल राइस कांफ्रेंस में स्वसहायता समूह के किसान प्रतिनिधि को भेजा गया है। इस अवसर पर विक्रय के लिए चावल के एक किलो व पांच-पांच किलो के पैकेट भी भेजे गए हैं। राज्य का सहकारी उत्पादन अब अंतर्राष्ट्रीय बाजार में अपनी संभावना तलाश रहा है।

राजधानी में हाथोहाथ बिकता है
राजधानी के इंदिरा गांधी कृषि प्रोद्योगिकी विक्रय केन्द्र में सरगुजा के जीराफूल की बिक्री हाथों हाथ होती है। हम पूर्ति नहीं कर पा रहे हैं।
श्रीमती ज्योति भट्ट
तकनीकी सहायक

Thursday 15 October 2015

सूखा से निपटने तालाबों के जल प्रबंधन की जरूरत


0 38 हजार तालाबों के प्रबंधन की जिम्मेदारी किसकी

 रायपुर। सूखे से निपटने के लिए राज्य में जल प्रबंधन को महत्वपूर्ण माना जा रहा है। वैज्ञानिकों का मत है कि छत्तीसगढ़ का प्राचीन जल प्रबंधन श्रेष्ठ था लेकिन कालांतर में उसके रख-रखाव की ओर किसी का ध्यान नहीं रहा। वर्तमान में राज्य में 38 हजार तालाब मौजूद हैं लेकिन इसके रख रखाव को लेकर दो विभागों में आपसी विवाद है।

कृषि वैज्ञानिक डा.एएसआरएएस शास्त्री ने कहा कि छत्तीसगढ़ के हर गांव में कम से कम दो तालाब हैं।  यदि इन तालाबों के माध्यम से वर्षा जल का प्रबंधन किया जाए तो राज्य में पडऩे वाले सूखे से काफी हद तक निपटा जा सकता है। पहले इन तालाबों के माध्यम से जल प्रबंधन किया जाता था लेकिन बाद में इनके रख रखाव की ओर ध्यान नहीं दिया गया । आज स्थिति यह है कि तालाब उथले हो गए है उनमें जलकुंभी है और वे गंदे हैं लोग उसमें निस्तारी तक करने से परहेज कर रहे हैं लेकिन अब इन तालाबों के वास्तव में प्रबंधन की ज्यादा जरूरत है। यदि इनमें जमी मिट्टी निकाल दी जाए और इन्हें गहरा कर दिया जाए तो वर्षा पानी का इनमें भराव किया जा सकता है-जिससे भूजल स्तर भी ठीक होगा तथा आवश्यकता पडऩे पर खेती में सिंचाई भी की जा सकती है। उन्होंने बताया कि राज्य में 38 हजार तालाबों की अभी भी उपस्थिति है लेकिन इनके प्रबंधन को लेकर कोई चिंता नहीं कर रहा है।

यह भी उल्लेखनीय है कि प्राचीन छत्तीसगढ़ में तालाबों की लंबी श्रृंखला होती थी। प्रचीन छत्तीसगढ़ के शहरों रतनपुर में 365, मल्हार में 451तथा सिरपुर में 151 तालाब की अभी भी मौजूदगी इसकी संमृद्ध जल प्रबंधन परंपरा को दर्शाती है। खुद रायपुर शहर में तालाबों को इतना पाटने के बाद भी 52 तालाब वर्तमान में बचे हुए हैं।

श्री शास्त्री कहते हैं कि छत्तीसगढ़ के तालाबों की देखरेख करने वाला कोई नहीं है तालाबों की साफ-सफाई और रख-रखाव कौन करे को लेकर उहापोह की स्थिति है। जलसंसाधन विभाग का कहना है कि तालाब उसके क्षेत्राधिकार में नहीं आते हैं जबकि पंचायत विभाग का कहना है कि उसके पास फंड की कमी है। अब जबकि प्रदेश सूखे की चपेट में आ रहा है तो सबसे जरूरी है कि इन तालाबों के रखरखाव की जिम्मेदारी सक्षम विभाग को सौंपी जाए तथा प्राचीन जल प्रबंधन को अपनाया जाए, क्योंकि राज्य तेजी से क्लाइमेट चेंज के कारण सूखे की गिरफ्त में आ रहा है।

सूखे से निपटने के लिए किए जा रहे कृषि विभाग के प्रयासों पर संचालक प्रताप कृदत्त कहते हैं कि राज्य के 70 प्रतिशत क्षेत्रों में वर्षा पर आधारित खेती होती है इसलिए विभाग कम समय में पकने वाली फसल जैसे इंदिरा बरोनी, आईआर 64 तथा स्वर्णा सब वन जैसी धान की फसलों को किसानों को लगाने की समझाइश दे रहे हैं। यही कारण है कि राज्य में धान का उत्पादन बढ़ा है। उन्होंने भी वर्षा के जल प्रबंधन पर अपनी सहमति जताई है।

कामयाब नहीं श्री पद्धति
राज्य में कुल 27 प्रतिशत खेती सिंचित है जिसमें 18 प्रतिशत नहर सिंचाई क्षेत्र है जबकि 9 प्रतिशत ट्यूबवेल सिंचित क्षेत्र है। धान की श्री पद्धति जिसमें कम पानी में धान का उत्पादन संभव है सिर्फ ट्य़ूबवेल सिंचित क्षेत्र में ही लिया जा सकता है। राज्य की भौगोलिक स्थिति पारंपरिक खेती के लिए ही अनुकूल है इसलिए भी जल प्रबंधन की जरूरत बताई जा रही है।

520 स्टाप डेम और एनीकट
जल संरक्षण के कार्य के तहत विभाग में कार्य किए जाते हैं । वर्तमान में विभाग में 520 स्टाप डेम और एनीकट हैं जिनमें पंप के द्वारा सिंचाई की जाती है। वैसे इनमें निस्तार के लिए पानी उपलब्ध होता है। तालाबों का काम मनरेगा के तहत पंचायत विभाग करता है।
एच.आर.कुटारे
प्रमुख अभियंता, जलसंसाधन

बड़े तालाबों के लिए प्रस्ताव बुलाए गए
राज्य के बड़े सिंचाई लायक तालाबों को विभाग के अंतर्गत लेने के लिए प्रस्ताव बुलाए गए हैं। बाकी छोटे तालाबों की जिम्मेदारी जिला पंचायतों की है।
बृजमोहन अग्रवाल
कृषि एवं जलसंसाधन मंत्री

Tuesday 2 June 2015

राज्य के 8 जिले शुष्कता की ओर बढ़ रहे



0  किसानों को करना पड़ेगा मजबूरन फसल चक्र परिवर्तनरायपुर(जसेरि)। छत्तीसगढ़ में ग्लोबल वार्मिंग का असर दिखने लगा है। ग्लोबल वार्मिंग के कारण राज्य में औसत वर्षा लगातार कम हो रही है पहले जहां राज्य में औसतन 1380 मिलीमीटर वर्षा होती थी अब मात्र 1160 मिली मीटर वर्षा हो रही है। मानसून के इस बदलाव के चलते राज्य के 8 जिले अध्र्द शुष्क हो गए हैं तथा तेजी से शुष्कता की ओर बढ़ रहे हैं। अगर ये जिले पूरी तरह शुष्क हो गए तो वहां धान की फसल लेना मुश्किल हो जाएगा। किसानों को मजबूरन मक्का और उड़द, मूंग की फसल लेनी पड़ेगी।
इंदिरागांधी कृषि विश्वविद्यालय के प्रोफेसर एएसएआएएस शास्त्री का कहना है कि ग्लोबल वार्मिंग के कारण पूरे विश्व में हवा की दिशा और गति बदल रही है जिसके चलते जलवायु में परिवर्तन हो रहा है। यह परिवर्तन छत्तीसगढ़ में भी देखा जा रहा हैं जहां वर्षा की मात्रा कम हुई है। पिछले 30 सालों में राज्य के 8 जिले अध्र्द शुष्क हो चुके हैं जबकि भविष्य में 4-5 और जिलों भी इसकी चपेट में आ सकते हैं। वहीं पिछले 25 सालों में रायपुर जिले का तापमान दशमलव छह डिग्री बढ़ गया है। बदलते मौसम के अनुसार यदि जल्द ही वैज्ञानिक सूखा की स्थिति में पकने वाली बरानी धानों की उन्नत फसल विकसित नहीं कर पाए तो प्रदेश के इन जिलों में किसानों को मजबूरन फसल चक्र में परिवर्तन करना पड़ सकता है। उन्हें मक्का, सोयाबीन, उड़द तथा मूंग की फसल पर निर्भर रहना पड़ेगा। वैसे भी गरियाबंद तथा देवभोग में किसानों ने मक्का की खेती बढ़ाना शुरू कर दिया है।

महासमुंद जिला खतरनाक स्तर पर 
श्री शास्त्री ने बताया कि राज्य का महासमुंद जिला सर्वाधिक खतरनांक स्तर पर है जबकि अन्य जिलों में रायपुर, बालोद, दुर्ग, राजनांदगांव, कवर्धा, गरियाबंद तथा बिलासपुर हैं।

अक्टूबर में कमजोर हुई बारिश
छत्तीसगढ़ में ग्लोबल वार्मिंग के कारण अक्टूबर में बारिश कम हुई है वास्तव में अक्टूबर की बारिश बंगाल की खाड़ी में आने वाले तूफान पर निर्भर होती थी परंतु ग्लोबल वार्मिंग के कारण तूफानों की संख्या में कमी आई है इसलिए किसान अब लंबी अवधि की 145-150 दिन की फसल की जगह अब 120 दिन की धान की फसल ( महामाया,कर्मा ,मासूरी आदि) लेते हैं जो अक्टूबर तक पक जाती है।

छत्तीसगढ़ की ब्यासी पद्धति दुनिया से निराली
पुराने छत्तीसगढ़ याने बलांगीर संबलपुर, फुलझर सहित छत्तीसगढ़ के सभी 27 जिलों में ब्यासी पद्धति से धान की खेती की जाती है। ब्यासी पद्धति में ब्यासी के समय धान की बोनेी के बाद 30 दिन में 5 सेमी तक पानी होना चाहिए। यह पानी हमेशा उपलब्ध होना कठिन हो रहा है। जबकि पूरी दुनिया में सभी जगह धान रोपा पद्धति से लिया जाता है। छत्तीसगढ़ में ब्यासी पद्धति अपनाने का कारण 80 प्रतिशत असिंचित होना है।

ग्लोबल वार्मिंग का जंगलों से कोई लेनादेना नहीं
श्री शास्त्री कहते हैं कि ग्लोबल वार्मिंग एक वैश्विक घटनाक्रम है इसका स्थानीय जंगलों की स्थिति से कोई लेना देना नहीं है। जंगल की अधिकता स्थानीय वर्षा को प्रभावित करती है उससे मानसून प्रभावित नहीं होता है। ग्लोबल वार्मिंग के चलते राजस्थान, गुजरात महाराष्ट्र तथा नार्थ ईस्ट में वर्षा बढ़ रही है जबकि मध्यभारत, छत्तीसगढ़ तथा विदर्भ में वर्षा की मात्रा कम हो रही है। अब भारत के सबसे बारिश वाला स्थान चेरापूंजी के स्थान पर उसी के पास का स्थान मेश्राम ( दोनों मेघालय में ) हो गया है। 

फसल बीमा से किसानों की नाराजगी का कारण
चूंकि छत्तीसगढ़ की खेती ब्यासी पद्धति से होती है इसलिए जिसे हम सूखा कहते हैं उसे राष्ट्रीय स्तर पर सूखा नहीं माना जाता यही कारण है कि छत्तीसगढ़ का किसान फसल बीमा के मानदंड से असंतुष्ट होता है। छत्तीसगढ़ में राष्ट्रीय फसल बीमा को यहां की पारंपरिक खेती और मानदंडों के अनुसार लागू किए जाने की आवश्यकता कृषि मौसम वैज्ञानिक मानते  हैं।