Monday 26 October 2015

नया राजधानी तितली पार्क पैसों की बजह से पिछड़ा

 नया रायपुर के बागों में नहीं हुआ तितलियों का बसेरा
रायपुर। नया रायपुर सेंट्रल पार्क लैण्ड स्केप आर्किटेक्ट की माने तो सेन्ट्रल पार्क का बटरफ्लाई पार्क फण्ड की कमी से पिछड़ गया है। जबकि एनआरडीए की प्राथमिकता सिर्फ सेन्ट्रल पार्क है। सेंट्रल पार्क के अन्य घोषित संरचना बटरफ्लाई जोन,बर्ड आइवरी तथा टाय ट्रेन को बाद में विकसित करने के लिए रखा गया है।

राज्य ने नया रायपुर को इक्कीसवीं सदी का अत्याधुनिक नगर बसाने की घोषणा की है इसके लिए कई तरह के लोक लुभावन संरचनाएं बनाने की भी योजना है। इन्हीं संरचना में एक है बटरफ्लाई पार्क। राजधानी के सेंट्रल पार्क में ढाई एकड़ में यह बटरफ्लाई पार्क बनाना है लेकिन सेन्ट्रल पार्क को बनाने वाली कम्पनी मडव कल्संटेंट के विश्वास मडव ने बताया कि यह पार्क फण्ड की कमी के चलते पिछड़ गया है। उन्होंने बताया कि सिंगापुर के बटरफ्लाई माडल का सस्ता संस्करण यहां बनाने की योजना है इस योजना में हाई मास्क लाइट खंबों की ऊंचाई के सहारे जाली का एक बंद नेट हाउस बनाया जाएगा जिसके अंदर तितलियों के पसंदीदा फूल तथा पौधे विकसित किए जाएंगे। इस नेट हाउस में प्रदेश तथा देश की विभिन्न प्रजातियों की तितलियों को ला कर छोड़ा जाएगा। यह पार्क एक तरह से पार्क के साथ ही साथ तितलियों का संरक्षण स्थल भी होगा।
फिलहाल नया रायपुर में अब शीतऋतु ने दस्तक दे दी है। नया रायपुर के बागों में फूल भी खिले हैं परंतु एक्का-दुक्का ही तितली ही उड़ती दिख रही है। अभी भी नया रायपुर में तितलियों का बसेरा नहीं हुआ है। वैसे सेंट्रल पार्क में ढाई से तीन सौ सैलानी प्रतिदिन सैर करने पहुंच रहे हैं।

फण्ड की कमी के चलते रुका काम
फंड की कमी तथा सेन्ट्रल पार्क के बीच के कुछ जमीन विवाद के कारण सेन्ट्रल पार्क के बटरफ्लाई पार्क का मामला अटक गया है। इन समस्याओं के समाधान के बाद उसे विकसित किया जाएगा।
विश्वास मडव
लैंड स्केप आर्किट्रेक्ट, मडव कंसल्टेंट
09819350352

Wednesday 21 October 2015

धान के कटोरे में बासमती का भोग


 प्रदेश में साढ़े 36 लाख हेक्टेयर में धान का उत्पादन

रायपुर।  छत्तीसगढ़ अपने चावल की विविधता, स्वाद तथा सुगंध के लिए जाना जाता है। यहां उत्पादित होने वाला चावल बच्चों के लिए भी सुपाच्य है वहीं शुगर के मरीजों के लिए भी पथ्य है लेकिन इसके बाबजूद प्रदेश के समारोहों में बासमती का पुलाव और बिरयानी खिलाई जाती है। बासमती चावल को प्रदेश में भी स्टेटस सिंबल का दर्जा मिला हुआ है।
उल्लेखनीय है कि राज्य निर्माण के बाद प्रदेश ने व्यापारिक एवं औद्योगिक क्षेत्र में ऐसी कोई उपलब्धि हासिल नहीं जिससे उसे देश तथा विदेश में विशेष ख्याति हासिल हो सके जबकि प्रदेश में ऐसे कई क्षेत्र हैं जिस पर फोकस किया जाता तो राष्ट्रीय एवं अतर्राष्ट्रीय स्तर पर प्रसिद्धि मिल सकती थी। इन विशेष क्षेत्रों में राज्य के लोहा,हीरा तथा चावल को गिनाया जा सकता है। राज्य अभी तक अपने किसी उत्पाद की ब्रांडिंग करने में असमर्थ रहा है।
इंदिरा गांधी कृषि विश्वविद्यालय के शस्य जीव द्रव्य विभाग के प्रभारी डा.सरावगी बताते हैं कि छत्तीसगढ़ का चावल बासमती की तुलना में अधिक सुगंधित होता है।  यहां का चावल बासमती की तुलना में कम लंबा होता है लेकिन कोमल होता है इसलिए छत्तीसगढ़ के चावल को भरपेट खाया जा सकता है। वहीं बासमती को खाने के बाद थोड़ा सा स्वाद के लिए लिए जाने की परंपरा है। बासमती में कम एमाइलेज (स्टार्च) होने के कारण इसे अधिक मात्रा में नहीं खाया जा सकता है यह रूखा होता है। छत्तीसगढ़ ने पिछले दिनों देश की पहली हाई जिंक राईस वाली न्यूट्रिन रिच किस्म जारी की है। इसके अलावा लो ग्लाइसेमिक इंडेक्स के कारण यहां की एक स्थानीय धान की किस्म चपटी गुरमटिया को शुगर के मरीजों के लिए उपयुक्त पाया गया है।
एग्रीकान के अध्यक्ष डा.संकेत ठाकुर कहते हैं कि सरकार ने राज्य में दाना-दाना चावल खरीदने की योजना लाई थी तो सभी किसान संकर किस्मों के धान उत्पादन को आगे आए क्योंकि संकर किस्मो की पैदावार अधिक आती है। राज्य में होने वाली सरकारी खरीद के कारण धान का उत्पादन एक संरक्षित कैश क्राप बन गया था।  इस योजना में पतले और मोटे चावल के भाव में ज्यादा अंतर नहीं होने के कारण भी किसान सुगंधित चावल की किस्मों को उगाने में हतोत्साहित हुए आज सिर्फ सुगंधित चावल सरगुजा तथा जशपुर क्षेत्र में बोया जाता है। राज्य में सुगंधित धान लगाने का रकबा अब मात्र एक लाख हेक्टेयर रह गया है। वर्तमान में जबकि राज्य की नीति बदल गई है सरकार किसानों से उसकी उपज का 15 क्विंटल प्रति एकड़ के हिसाब से धान खरीद रही है तो ऐसे में फिर से किसान अगर अच्छी कीमत मिले तो सुगंधित धान पैदावार की ओर लौट सकता है। 
छत्तीसगढ़ राइस मिल एसोसिएशन के अध्यक्ष योगेश अग्रवाल ने कहते हैं कि छत्तीसगढ़ पहले की तरह धान का कटोरा  नहीं रहा यहां के पतले चावल की आपूर्ति अब महाराष्ट्र से आने वाले पतले चावल से हो रही है जिसकी क्वालिटी कमतर होने के बावजूद राजधानी में व्यापारियों द्वारा बेचा जा रहा है। छत्तीसगढ़ का चावल पूरे देश में अपनी मिठास और सुगंध के लिए जाना जाता है। जहां तक बासमती चावल को सम्मान मिलने की बात है वह देखने में सुन्दर होता है आजकल शो का जमाना है इसलिए यहां भी पार्टियों में उसे परोसते हैं।
कृषि विभाग के संचालक प्रताप कृदत्त कहते हैं कि छत्तीसगढ़ का उत्पादित सुगंधित चावल मेट्र के मांग की ही पूरा नहीं कर पाता तो उसकी विदेश के लिए ब्रांडिंग कैसे की जाए। प्रदेश में साढ़े 36 लाख हेक्टेयर में धान का उत्पादन लिया जाता है जिसमें सुगंधित धान का हिस्सा बहुत कम है। सुगंधित चावल की ब्रांडिंग के लिए छत्तीसगढ़ शासन कोई योजना नहीं ला रहा है।
इस मुद्दे पर बलरामपुर कृषि विज्ञान केन्द्र के जीराफूल उत्पादन परियोजना के प्रभारी डा.अजय त्रिपाठी कहते हैं कि बासमती को सम्मान सिर्फ इसलिए मिला रहा है क्योंकि यह सबसे पहले अंतर्राष्ट्रीय बाजार में गया जिसके कारण टीवी तथा अन्य प्रचार माध्यमों में विज्ञापनों के माध्यम से इसे स्टेटस सिंबल बनने का मौका मिला, हमारा चावल अभी बाजार में गया ही नहीं है अन्यथा अभी भी वह अतर्राष्ट्रीय बाजार में छाने का माद्दा रखता है। जरूरत है तो सिर्फ सुगंधित चावल उत्पादक संघों का फेडरेशन बनाकर आक्रामक मार्केटिंग की, रही बात सुगंधित किस्म के धान के कम उत्पादन की तो यह उसकी अच्छी कीमत से फायदे में तब्दील की जा सकती है। उन्होंने कहा कि सुगंधित धान की खेती के कैश क्राप में तब्दील करने के लिए सुगंधित धान उत्पादन ही नहीं बल्कि किसानों के द्वारा उसका चावल बना कर खुद मार्केटिंग करने की जरूरत है। जिसका सफल प्रयोग हम बलरामपुर के जीराफूल उत्पादन परियोजना में कर रहे हैं।

Monday 19 October 2015

चावल जीराफूल की अंतर्राष्ट्रीय बाजार में दस्तक


0 दुबई के ट्रेडर ने एमओयू करने किया संपर्क

रायपुर। छत्तीसगढ़ का सुगंधित चावल जीराफूल को स्थानीय बाजार में जहां अच्छा प्रतिसाद मिल रहा है, वहीं उसकी विदेश में भी मांग की संभावना तलाशी जा रही है। राज्य ने अपने सहकारी उत्पाद को विदेशों में पापुलर करने के लिए नई दिल्ली में शुक्रवार से आयोजित राइस इंटरनेशनल कांफ्रेंस में प्रस्तुत किया है।
जानकारी के अनुसार छत्तीसगढ़ की टोपोग्राफी (भौगोलिक संरचना) में बस्तर और सरगुजा की निचली जमीन सुगंधित चावल उत्पादन के लिए उपयुक्त है इसलिए सरगुजा में पारंपरिक जीराफूल की खेती को पिछले साल से व्यापारिक रूप दिया गया है। जिला बलरामपुर कृषि विज्ञान केन्द्र के डा.अरुण त्रिपाठी ने बताया कि सरकारी प्रयासों से वर्तमान में जिले के धान उत्पादित 90 हजार हेक्टेयर रकबे में से मात्र 7 हजार हेक्टेयर में 40-45 किसानों द्वारा जीरा फूल सुगंधित चावल का उत्पादन शुरु कराया गया है। इस जीराफूल सुगंधित धान उत्पादन में 9 स्वसहायता समूह कार्यरत हैं जिसमें से 3 स्वसहायता समूह सीधे विज्ञान केन्द्र से जुड़े हैं। इन समूहों द्वारा उत्पादित जीराफूल को विभिन्न एजेंसियों एवं संस्थानों के माध्यम से विक्रय किया जा रहा है। उन्होंने बताया कि इस नई पहल से स्वसहायता समूह से जुड़े सभी किसान व्यापारी में तब्दील हो चुके हैं वे अपने उत्पादन का स्वयं मूल्य निर्धारण करते हैं और अपने उत्पाद जीराफूल को सीधे उपभोक्ताओं को बेच देते हैं। किसानों को जीराफूल उत्पादन में 30 रुपए प्रतिकिलो की लागत पड़ती है जिसे किसान 60 रुपए प्रतिकिलो बेच रहे हैं गुणवत्ता के कारण उसका चावल हाथों हाथ बिक रहा है जिसका सीधा लाभ किसानों को मिल रहा है।
श्री त्रिपाठी कहते हैं कि जीराफूल सरगुजा का पारंपरिक चावल था लेकिन दो दशक में इसकी खेती में तेजी से गिरावट आई थी, किसान हाईब्रीड धान के उत्पादन के लिए प्रेरित हुए थे लेकिन धान लगाने का ज्यादा खर्च और हर साल नए बीज खरीदने के खर्चीले सौदे के कारण पिछले दो साल से किसान जीराफूल उत्पादन की ओर मुड़े हैं। इन किसानों ने कृषि विज्ञान केन्द्र के माध्यम से पारंपरिक चावल उत्पादन परियोजना से जुड़ कर जीराफूल का उत्पादन शुरु किया है। पिछले दो सालों में बलरामपुर जिले के किसानों का जीराफूल उत्पादन पहले की तुलना में दो गुना रकबा हो गया है।
श्री त्रिपाठी का कहना है कि स्वसहायता समूह को राज्य सरकार का भरपूर सहयोग मिल रहा है। इसके चलते ही किसानों का उत्पाद राजधानी के माल से लेकर अन्य एजेंसियों में बिक रहा है। चावल की गुणवत्ता को देखते हुए दुबई का अंतर्राष्ट्रीय ट्रेडर ओजोन कन्सल्टेंट राज्य से 100 टन चावल प्रतिवर्ष का एग्रीमेंट करने को तैयार है वो हमारे उत्पादन की सीमां 100 टन छूने का इंतजार कर रहा है। जबकि राज्य शासन के सहयोग से पिछले शुक्रवार से शुरु हुए नई दिल्ली के इंटरनेशनल राइस कांफ्रेंस में स्वसहायता समूह के किसान प्रतिनिधि को भेजा गया है। इस अवसर पर विक्रय के लिए चावल के एक किलो व पांच-पांच किलो के पैकेट भी भेजे गए हैं। राज्य का सहकारी उत्पादन अब अंतर्राष्ट्रीय बाजार में अपनी संभावना तलाश रहा है।

राजधानी में हाथोहाथ बिकता है
राजधानी के इंदिरा गांधी कृषि प्रोद्योगिकी विक्रय केन्द्र में सरगुजा के जीराफूल की बिक्री हाथों हाथ होती है। हम पूर्ति नहीं कर पा रहे हैं।
श्रीमती ज्योति भट्ट
तकनीकी सहायक

Thursday 15 October 2015

सूखा से निपटने तालाबों के जल प्रबंधन की जरूरत


0 38 हजार तालाबों के प्रबंधन की जिम्मेदारी किसकी

 रायपुर। सूखे से निपटने के लिए राज्य में जल प्रबंधन को महत्वपूर्ण माना जा रहा है। वैज्ञानिकों का मत है कि छत्तीसगढ़ का प्राचीन जल प्रबंधन श्रेष्ठ था लेकिन कालांतर में उसके रख-रखाव की ओर किसी का ध्यान नहीं रहा। वर्तमान में राज्य में 38 हजार तालाब मौजूद हैं लेकिन इसके रख रखाव को लेकर दो विभागों में आपसी विवाद है।

कृषि वैज्ञानिक डा.एएसआरएएस शास्त्री ने कहा कि छत्तीसगढ़ के हर गांव में कम से कम दो तालाब हैं।  यदि इन तालाबों के माध्यम से वर्षा जल का प्रबंधन किया जाए तो राज्य में पडऩे वाले सूखे से काफी हद तक निपटा जा सकता है। पहले इन तालाबों के माध्यम से जल प्रबंधन किया जाता था लेकिन बाद में इनके रख रखाव की ओर ध्यान नहीं दिया गया । आज स्थिति यह है कि तालाब उथले हो गए है उनमें जलकुंभी है और वे गंदे हैं लोग उसमें निस्तारी तक करने से परहेज कर रहे हैं लेकिन अब इन तालाबों के वास्तव में प्रबंधन की ज्यादा जरूरत है। यदि इनमें जमी मिट्टी निकाल दी जाए और इन्हें गहरा कर दिया जाए तो वर्षा पानी का इनमें भराव किया जा सकता है-जिससे भूजल स्तर भी ठीक होगा तथा आवश्यकता पडऩे पर खेती में सिंचाई भी की जा सकती है। उन्होंने बताया कि राज्य में 38 हजार तालाबों की अभी भी उपस्थिति है लेकिन इनके प्रबंधन को लेकर कोई चिंता नहीं कर रहा है।

यह भी उल्लेखनीय है कि प्राचीन छत्तीसगढ़ में तालाबों की लंबी श्रृंखला होती थी। प्रचीन छत्तीसगढ़ के शहरों रतनपुर में 365, मल्हार में 451तथा सिरपुर में 151 तालाब की अभी भी मौजूदगी इसकी संमृद्ध जल प्रबंधन परंपरा को दर्शाती है। खुद रायपुर शहर में तालाबों को इतना पाटने के बाद भी 52 तालाब वर्तमान में बचे हुए हैं।

श्री शास्त्री कहते हैं कि छत्तीसगढ़ के तालाबों की देखरेख करने वाला कोई नहीं है तालाबों की साफ-सफाई और रख-रखाव कौन करे को लेकर उहापोह की स्थिति है। जलसंसाधन विभाग का कहना है कि तालाब उसके क्षेत्राधिकार में नहीं आते हैं जबकि पंचायत विभाग का कहना है कि उसके पास फंड की कमी है। अब जबकि प्रदेश सूखे की चपेट में आ रहा है तो सबसे जरूरी है कि इन तालाबों के रखरखाव की जिम्मेदारी सक्षम विभाग को सौंपी जाए तथा प्राचीन जल प्रबंधन को अपनाया जाए, क्योंकि राज्य तेजी से क्लाइमेट चेंज के कारण सूखे की गिरफ्त में आ रहा है।

सूखे से निपटने के लिए किए जा रहे कृषि विभाग के प्रयासों पर संचालक प्रताप कृदत्त कहते हैं कि राज्य के 70 प्रतिशत क्षेत्रों में वर्षा पर आधारित खेती होती है इसलिए विभाग कम समय में पकने वाली फसल जैसे इंदिरा बरोनी, आईआर 64 तथा स्वर्णा सब वन जैसी धान की फसलों को किसानों को लगाने की समझाइश दे रहे हैं। यही कारण है कि राज्य में धान का उत्पादन बढ़ा है। उन्होंने भी वर्षा के जल प्रबंधन पर अपनी सहमति जताई है।

कामयाब नहीं श्री पद्धति
राज्य में कुल 27 प्रतिशत खेती सिंचित है जिसमें 18 प्रतिशत नहर सिंचाई क्षेत्र है जबकि 9 प्रतिशत ट्यूबवेल सिंचित क्षेत्र है। धान की श्री पद्धति जिसमें कम पानी में धान का उत्पादन संभव है सिर्फ ट्य़ूबवेल सिंचित क्षेत्र में ही लिया जा सकता है। राज्य की भौगोलिक स्थिति पारंपरिक खेती के लिए ही अनुकूल है इसलिए भी जल प्रबंधन की जरूरत बताई जा रही है।

520 स्टाप डेम और एनीकट
जल संरक्षण के कार्य के तहत विभाग में कार्य किए जाते हैं । वर्तमान में विभाग में 520 स्टाप डेम और एनीकट हैं जिनमें पंप के द्वारा सिंचाई की जाती है। वैसे इनमें निस्तार के लिए पानी उपलब्ध होता है। तालाबों का काम मनरेगा के तहत पंचायत विभाग करता है।
एच.आर.कुटारे
प्रमुख अभियंता, जलसंसाधन

बड़े तालाबों के लिए प्रस्ताव बुलाए गए
राज्य के बड़े सिंचाई लायक तालाबों को विभाग के अंतर्गत लेने के लिए प्रस्ताव बुलाए गए हैं। बाकी छोटे तालाबों की जिम्मेदारी जिला पंचायतों की है।
बृजमोहन अग्रवाल
कृषि एवं जलसंसाधन मंत्री

Tuesday 2 June 2015

राज्य के 8 जिले शुष्कता की ओर बढ़ रहे



0  किसानों को करना पड़ेगा मजबूरन फसल चक्र परिवर्तनरायपुर(जसेरि)। छत्तीसगढ़ में ग्लोबल वार्मिंग का असर दिखने लगा है। ग्लोबल वार्मिंग के कारण राज्य में औसत वर्षा लगातार कम हो रही है पहले जहां राज्य में औसतन 1380 मिलीमीटर वर्षा होती थी अब मात्र 1160 मिली मीटर वर्षा हो रही है। मानसून के इस बदलाव के चलते राज्य के 8 जिले अध्र्द शुष्क हो गए हैं तथा तेजी से शुष्कता की ओर बढ़ रहे हैं। अगर ये जिले पूरी तरह शुष्क हो गए तो वहां धान की फसल लेना मुश्किल हो जाएगा। किसानों को मजबूरन मक्का और उड़द, मूंग की फसल लेनी पड़ेगी।
इंदिरागांधी कृषि विश्वविद्यालय के प्रोफेसर एएसएआएएस शास्त्री का कहना है कि ग्लोबल वार्मिंग के कारण पूरे विश्व में हवा की दिशा और गति बदल रही है जिसके चलते जलवायु में परिवर्तन हो रहा है। यह परिवर्तन छत्तीसगढ़ में भी देखा जा रहा हैं जहां वर्षा की मात्रा कम हुई है। पिछले 30 सालों में राज्य के 8 जिले अध्र्द शुष्क हो चुके हैं जबकि भविष्य में 4-5 और जिलों भी इसकी चपेट में आ सकते हैं। वहीं पिछले 25 सालों में रायपुर जिले का तापमान दशमलव छह डिग्री बढ़ गया है। बदलते मौसम के अनुसार यदि जल्द ही वैज्ञानिक सूखा की स्थिति में पकने वाली बरानी धानों की उन्नत फसल विकसित नहीं कर पाए तो प्रदेश के इन जिलों में किसानों को मजबूरन फसल चक्र में परिवर्तन करना पड़ सकता है। उन्हें मक्का, सोयाबीन, उड़द तथा मूंग की फसल पर निर्भर रहना पड़ेगा। वैसे भी गरियाबंद तथा देवभोग में किसानों ने मक्का की खेती बढ़ाना शुरू कर दिया है।

महासमुंद जिला खतरनाक स्तर पर 
श्री शास्त्री ने बताया कि राज्य का महासमुंद जिला सर्वाधिक खतरनांक स्तर पर है जबकि अन्य जिलों में रायपुर, बालोद, दुर्ग, राजनांदगांव, कवर्धा, गरियाबंद तथा बिलासपुर हैं।

अक्टूबर में कमजोर हुई बारिश
छत्तीसगढ़ में ग्लोबल वार्मिंग के कारण अक्टूबर में बारिश कम हुई है वास्तव में अक्टूबर की बारिश बंगाल की खाड़ी में आने वाले तूफान पर निर्भर होती थी परंतु ग्लोबल वार्मिंग के कारण तूफानों की संख्या में कमी आई है इसलिए किसान अब लंबी अवधि की 145-150 दिन की फसल की जगह अब 120 दिन की धान की फसल ( महामाया,कर्मा ,मासूरी आदि) लेते हैं जो अक्टूबर तक पक जाती है।

छत्तीसगढ़ की ब्यासी पद्धति दुनिया से निराली
पुराने छत्तीसगढ़ याने बलांगीर संबलपुर, फुलझर सहित छत्तीसगढ़ के सभी 27 जिलों में ब्यासी पद्धति से धान की खेती की जाती है। ब्यासी पद्धति में ब्यासी के समय धान की बोनेी के बाद 30 दिन में 5 सेमी तक पानी होना चाहिए। यह पानी हमेशा उपलब्ध होना कठिन हो रहा है। जबकि पूरी दुनिया में सभी जगह धान रोपा पद्धति से लिया जाता है। छत्तीसगढ़ में ब्यासी पद्धति अपनाने का कारण 80 प्रतिशत असिंचित होना है।

ग्लोबल वार्मिंग का जंगलों से कोई लेनादेना नहीं
श्री शास्त्री कहते हैं कि ग्लोबल वार्मिंग एक वैश्विक घटनाक्रम है इसका स्थानीय जंगलों की स्थिति से कोई लेना देना नहीं है। जंगल की अधिकता स्थानीय वर्षा को प्रभावित करती है उससे मानसून प्रभावित नहीं होता है। ग्लोबल वार्मिंग के चलते राजस्थान, गुजरात महाराष्ट्र तथा नार्थ ईस्ट में वर्षा बढ़ रही है जबकि मध्यभारत, छत्तीसगढ़ तथा विदर्भ में वर्षा की मात्रा कम हो रही है। अब भारत के सबसे बारिश वाला स्थान चेरापूंजी के स्थान पर उसी के पास का स्थान मेश्राम ( दोनों मेघालय में ) हो गया है। 

फसल बीमा से किसानों की नाराजगी का कारण
चूंकि छत्तीसगढ़ की खेती ब्यासी पद्धति से होती है इसलिए जिसे हम सूखा कहते हैं उसे राष्ट्रीय स्तर पर सूखा नहीं माना जाता यही कारण है कि छत्तीसगढ़ का किसान फसल बीमा के मानदंड से असंतुष्ट होता है। छत्तीसगढ़ में राष्ट्रीय फसल बीमा को यहां की पारंपरिक खेती और मानदंडों के अनुसार लागू किए जाने की आवश्यकता कृषि मौसम वैज्ञानिक मानते  हैं। 

Tuesday 21 April 2015

राजधानी में 4 जी के लिए अभी और इंतजार


0 दुर्गा कालेज, एरोड्रम बीटीएस का मामला अधर में
रायपुर। राजधानी सहित राज्य के प्रमुख दो शहर दुर्ग व बिलासपुर में वाईमैक्स के जरिए सस्ती वायरलेस इंटरनेट सेवा उपलब्ध कराने के लिए बीएसएनएल में युद्ध गति से काम शुरू किया गया। वैसे तो इस सेवा को कम्पनी मई के अंतिम सप्ताह तक शुरू करना चाह रही है। परंतु अधिकारियों का मानना है कि इस सेवा के शुरू होने में अभी समय है और यह सेवा संभवत: जून-जुलाई में प्रारंभ हो सकती है।
उल्लेखनीय है कि पिछले दिनों बीएसएनएल ने प्रचारित किया था कि राजधानी के दुर्गा कालेज तथा एरोड्रम क्षेत्र में एक-एक टावर से यह सेवा राजधानी वासियों को दी जाएगी लेकिन अब खबर है कि व्यावसायिक परेशानियों के कारण बीएसएनएल का यह कार्यक्रम अधर में लटक गया है। दुर्गा कालेज कैंपस इस सेवा के लिए बीएसएऩएल को पैसा नहीं देना चाहता जबकि उल्टे एरोड्रम अथार्रिटी बीएसएऩएल से इस सेवा को उसके क्षेत्र में शुरू करने के लिए पैसा मांग रही है। इन दोनों ही समस्याओं के समाधान के लिए बीएसएऩएस वेंडर पर निर्भर है। अधिकारियों का कहना है कि राज्य में वाईमैक्स के जरिए सेवा प्रदान करने के लिए एक कम्पनी को नियुक्त किया गया है वह कम्पनी ही इस समस्या को हल करेगी। बीएसएनएल सिर्फ सुविधा उपलब्ध कराने का सेवा शुल्क लेगी।
क्या है वाईमैक्स सुविधा
वाईमैक्स याने वल्र्ड वाइड इंट्रोपैराबिलिटी फार माइक्रो वेब एससे एक सस्ती 4 जी गति के बराबर की इंटरनेट सेवा है। इसके टावर का रेंज ग्रामीण क्षेत्र में 8 किलोमीटर तथा शहरी क्षेत्र में 4 किलोमीटर की परिधि है। इसके टावर से व्यवहारिक रूप में 2 एमबीपीएस के गति की इंटरनेट सेवा प्रदान की जाती है। यह एक सस्ती इंटरनेट सेवा है जिसे बिना सिम वाले डोंगल के माध्यम से उपभोक्ताओं तक पहुंचाया जाता है।
ग्रामीण क्षेत्रों में 40 टावर
वाईमैक्स को पहले ग्रामीण क्षेत्रों के लिए लाया गया था जहां यह सेवा सफलता से साथ काम कर रही है। छत्तीसगढ़ के 40 ग्रामीण क्षेत्रों इसे लगाया गया है। लेकिन ग्रामीण क्षेत्र में इतना अच्छा प्रतिसाद नहीं मिलने के कारण इस सेवा को शहरी क्षेत्र में लाया जा रहा है। अब इस सेवा को बीएसएऩएल विभाग शहर में दे कर निजी कंपनियों द्वारा लाए जा रहे 4 जी मोबाइल सेवा को चुनौती देना चाहती है।
वाईमैक्स मोबाइल को सपोर्ट नहीं करेगा
वाईमैक्स एक इंटरनेट प्रवाइडर सेवा है। यह 4 जी मोबाइल को सपोर्ट नहीं करती है इसके माध्यम से हाई स्पीड इंटरनेट सेवा दी जा सकती है। हम इसे बिलासपुर दुर्ग तथा रायपुर में जल्द शुरू करने जा रहे हैं।
सुप्रभात दास
जनसंपर्क अधिकारी, बीएसएनएल रायपुर परिमंडल    

किसानों को कैसे मिले मनोरंजन के साथ सूचनाएं


0 8 साल से रेडियोस्टेशन बंद, अधिकारी खानापूर्ति कर भूले
0 वैकल्पिक व्यवस्था के लिए नहीं हुई पहल
रायपुर। इंदिरागांधी कृषि विश्वविद्यालय का रेडियो स्टेशन अपने जन्म के बाद बिना छ_ी मनाए ही बंद हो गया। अधिकारियों ने फाइल चलाई और मामले को ठंडे बस्ते में डाल दिया। अब कृषि विश्वविद्यालय के पास सिर्फ लकदक स्टूडियो है परंतु एंटीना की गड़बड़ी के कारण रेडियो स्टेशन से प्रसारण नहीं हो रहा है और किसानों को सर्व सुलभा साधन रेडियो के माध्यम से कृषि संबंधी जानकारी प्राप्त नहीं हो पा रही है।
आधिकारिक सूत्रों से मिली जानकारी के अनुसार आठ साल पहले मुख्यमंत्री डा.रमन सिंह के मुख्यआतिथ्य में इंदिरागांधी कृषि विश्वविद्यालय ने केन्द्र प्रवर्तित योजना के तहत एफएम रेडियो-स्टेशन उद्घाटित करवाया था। रेडियो स्टेशन के उद्घाटन के ठीक छठवें दिन ही स्टेशन के एंटीना में गड़बड़ी आने के कारण रेडियो स्टेशन बंद हो गया। प्रभारी अधिकारियों ने फाइल चलाकर खानापूर्ति की और मामले को ठंडे बस्ते में डाल दिया गया। सूत्र बताते हैं कि इस रेडियो स्टेशन से शहरी तथा ग्रामीण किसान भाइयों के लिए कार्यक्रम तैयार किए जाने थे जिसमें स्वस्थ्य मनोरंजन के साथ कृषि संबंधी सूचनाएं किसान भाइयों को दी जानी थी। इस रेडियो स्टेशन को किसान भाइयों के लिए दिन भर चलाने की योजना थी इसके लिए कृषि विभाग ने बाकायदा कार्यक्रम भी तैयार कर लिए थे और आगे भी कार्यक्रम बनाने की तैयारी थी। लेकिन रेडिये स्टेशन के बंद होने से उसके प्रोग्राम स्टूडियों में धूल खाते पड़े हैं।  
देश में आज रेडियो की ताकत को फिर से पहचान मिली है, प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने रेडियो की ताकत को पहचान कर ही मन की बात शुरू की है। परंतु राजधानी में किसान भाइयों के लिए लगाए गए रेडियो स्टेशन को पुनर्जीवित करने की किसी को फिक्र्र नहीं है। जानकारों का कहना है कि विश्वविद्यालय में बने स्टूडियो में कार्यक्रम बना कर इसे आकाशवाणी के माध्यम से प्रसारित किया जा सकता था परंतु सरकारी समन्वय के अभाव में इसे चालू नहीं किया जा सका है। इंदिरा गांधी कृषि विश्वविद्यालय तथा कृषि विभाग इस महत्वपूर्ण संसाधन का उपयोग न करके किसानों तक सूचना पहुंचाने के लिए अत्याधुनिक मोबाइल एसएमएस सेवा का उपयोग कर रहा है जिसकी कि गांव में पहुंच ज्यादा नहीं है।

प्रयास कर थक चुके
हम खुद चाहते हैं कि यह सेवा चालू हो लेकिन इसके संबंध में लगाने वाली एजेंसी से बहुत लिखा पढ़ी करने के बाद भी कोई हल नहीं निकला। इसके अलावा हमने आकाशवाणी से भी चर्चा की लेकिन कोई लाभदायक बातचीत नहीं हो पाई इसलिए हताश होकर हम चुप बैठ गए।
डा.एन.पी.ठाकुर
रेडियो स्टेशन प्रभारी
इंदिरा गांधी कृषि विश्वविद्यालय, रायपुर

जिले में परिवार नियोजन हुआ आधा


0 सुरक्षा मानकों का कड़ाई से पालन, नहीं ले रहे चिकित्सक कोई रिस्क
रायपुर। पिछले साल हुए बिलासपुर नसबंदी कांड के कारण रायपुर जिले में परिवार नियोजन कार्यक्रम पर असर पड़ा है। इस कांड के चलते जहां जिले में प्रतिवर्ष 12 सौ से 13 सौ नसबंदी होती थी वहीं बीते वर्ष में नसबंदीकरण मात्र आधी हो गई है।
विभागीय अधिकारियों ने बताया कि पिछले वर्ष हुए बिलासपुर नसबंदी कांड के बाद विभाग में नसबंदी कार्यक्रम बंद कर दिया गया था । बाद में जिलें में दिसंबर-जनवरी से नसबंदी करना प्रारंभ किया गया इसके चलते जिले में नसबंदी की संख्या लगभग 6 सौ ही पहुंच पाई जबकि जिले में नसंबदी का आंकड़ा हमेशा 12 सौ से लेकर 13 सौ पहुंचता था।
अधिकारियों ने बताया कि वैसे तो नसबंदी करने के लिए विभाग में कोई लक्ष्य नहीं दिया जाता है फिर भी जिले की जनसंख्या 22 लाख है के हिसाब से प्रतिवर्ष 12 सौ से 13 सौ नसबंदी होती है इसमें महिला तथा पुरुष नसबंदी दोनों शामिल हैं। बीते वर्ष चूंकि यह कार्यक्रम दिसंबर से ही शुरु  हुआ तथा पिछले वर्ष ही हुए बिलासपुर नसबंदी कांड की दहशत के कारण लोगों ने इस कार्यक्रम में ज्यादा रुचि नहीं दिखाई इसलिए गुजरे वित्तीय वर्ष में जिले में मात्र 6 सौ नसबंदी ही संभव हो पाई ।
अधिकारियों ने यह भी बताया कि पिछले 15 सालों से जिले में एक भी नसबंदी शिविर नहीं लगा है। 15 वर्ष पूर्व दूरबीन पद्धति से नसबंदी करने शिविर लगा करते थे परंतु उन शिविरों में हुई नसबंदियां बड़ी मात्रा में असफल होने के कारण नसबंदी शिविरों को बंद कर दिया गया। वर्तमान में जिले में स्थाई चिकित्सालयों में पारंपरिक रुप से नसबंदी की जाती है जिसमें पुरुषों की बिना चीरा लगाए तथा महिलाओं की पेट खोल कर नली को बांध कर नसबंदी की जाती है।

आयुर्वेदिक कालेज में नसबंदी बंद
चिकित्सकीय नियमों का कड़ाई से पालन करने का कारण विभाग ने आयुर्वेदिक कालेज में नसबंदी की सुविधा को हटा लिया है। अब एलोपैथिक अस्पतालों में ही नसबंदी की जा रही है। सूत्रों ने बताया कि अब नसबंदी में सभी तरह के नियमों का कड़ाई से पाल किया जा रहा है चिकित्सक एक बार में सिर्फ 20 मरीज की ही नसबंदी करते हैं बाकी को वापस भेज दिया जाता है किसी तरह का कोई जोखिम नहीं लिया जा रहा है।

जहरीली गोलियों के कारण हुआ था बिलासपुर नसबंदी कांड
पिछले वर्ष बिलासपुर का नसबंदी कांड उपचार के बाद दी गई जहरीली एन्टीबायोटिक की गोलियों के कारण हुआ था। इस तथ्य को स्वयं स्वास्थ्य मंत्री अमर अग्रवाल ने स्वीकारा था। बिलासपुर नसबंदी कांड शिविर लगाकर आपरेशन करने के कारण हुआ था तथा इसमें 14 महिलाओं की जान गई थी। सरकार ने इस कांड में संलिप्त अधिकारियों को सस्पेंड किया था।

परिवार नियोजन का कोई लक्ष्य नहीं
परिवार नियोजन का कोई लक्ष्य निर्धारित नहीं है। जरूरत के अनुसार हास्पिटल में नसबंदी की जाती है। राज्य में नसबंदी शिविर लगाकर नसबंदी करना गैर कानूनी है। जिले में परिवार नियोजन कार्यक्रम ठीक चल रहा है।
डा.के.आर.सोनवानी
मुख्यचिकित्सा  एवं स्वास्थ्य अधिकारी, रायपुर    

हरियर छत्तीसगढ़: अरबों खर्च उपलब्धि शून्य


0 नए वर्ष में 8 करोड़ पौधे लगाने का लक्ष्य
0 उद्योगों ने फिर नहीं पूरा किया लक्ष्य
0 वन विभाग हर वर्ष खर्च करता है 150 करोड़
रायपुर। मानसून के आगमन के पूर्व हरियर छत्तीसगढ़ की रस्मीतौर पर समीक्षा बैठक की गई जिसमें मुख्यमंत्री ने इस वर्ष राज्य में 8 करोड़ पौधे लगाने का लक्ष्य दिया। महानदी भवन मंत्रालय में हुई समीक्षा बैठक में औद्योगिक प्लांटेशन पर कोई चर्चा नहीं की गई। राज्य के निर्माण के साथ शुरू हुए हरियर छत्तीसगढ़ अभियान में अरबों रुपए खर्च हो चुके हैं लेकिन न तो राज्य में हरियाली ही दिखी और न ही वातावरण के तापमान में एक डिग्री की भी कमी आंकी गई।
उल्लेखनीय है कि पिछले दिनों मुख्यमंत्री डा.रमन सिंह ने महानदी भवन में हरियर छत्तीसगढ़ की समीक्षा बैठक ली और आगामी मानसून में राज्य में 8 करोड़ 02 लाख पौधे रोपने का लक्ष्य निर्धारित किया । मुख्यमंत्री ने कहा कि इन पौधों की नर्सरी समय पर तैयार हो, इसका विशेष ध्यान रखा जाए।मुख्यमंत्री डॉ. सिंह ने पौध रोपण से ज्यादा उनकी सुरक्षा पर ध्यान दिए जाने पर जोर दिया। उन्होंने कहा कि वृक्षारोपण में बड़े आकार के पौधे लगाए जाएं, इससे उनके जीवित होने की संभावना ज्यादा होती है।
इस समीक्षा बैठक की सबसे बड़ी बात यह रही कि समीक्षा बैठक में उद्योगपतियों को पौधा रोपण के लिए दिए जाने वाले लक्ष्य की कोई चर्चा नहीं की गई। हम यहां बता दें कि आधिकारिक सूत्रों के अनुसार जब से राज्य बना है तब से हरियर छत्तीसगढ़ का कार्यक्रम राज्य में चलाया जा रहा है। इस कार्यक्रम में अकेले वन विभाग प्रतिवर्ष 150 करोड़ की राशि खर्च करता है। जबकि अन्य विभाग अपने पर्यावरण मद से पौधे लगाने में खर्च करते हैं। इसके अलावा औद्योगिक सामूदायिक विकास (सीएसआर) के तहत राज्य के उद्योगों को भी पौधे लगाने का जिम्मा दिया जाता है। लेकिन औद्योगिक इकाइयां कभी भी अपना लक्ष्य पूरा नहीं करती हैं। वहीं वन विभाग भी हर वर्ष उन्हीं क्षेत्रों में फिर से पौधा रोपण कर मामले की इतिश्री कर देता है और परिणाम सिफर होता है।

ग्रीन इंडिया मिशन भी साथ-साथ
प्रधान मुख्य वन संरक्षक राम प्रकाश ने बताया कि जलवायु परिवर्तन पर आधारित 'हरियर भारतÓ मिशन (ग्रीन इंडिया मिशन) छत्तीसगढ़ में भी संचालित है।  इस मिशन के तहत राज्य में प्रथम वर्ष में ग्यारह वन मंडलों का चयन किया गया था जिसमें वन मंडलों की 80 वन प्रबंधन समितियों और गांवों को हरियर भारत मिशन में जोड़ा गया। इस मिशन के लिए चयनित वनमंडलों में कवर्धा, बिलासपुर, मरवाही, कटघोरा, बस्तर, कांकेर, दक्षिण कोण्डागांव, रायपुर, पूर्व रायपुर, उत्तर सरगुजा और दक्षिण सरगुजा शामिल हैं। चयनित वन मंडलों मेें ग्यारह लैण्ड स्केप के प्रॉस्पेक्टिव प्लान तैयार कर 171 करोड़ 87 लाख रूपए के प्रस्ताव केन्द्र सरकार को भेजे गए थे। इस मिशन में इस वर्ष 20 करोड़ रुपए मिलेंगे।

उद्योगों ने नहीं पूरे किए लक्ष्य
श्री प्रकाश ने बताया कि पिछले वर्ष की तरह इस वर्ष भी उद्योगों ने अपनी जिम्मेदारी नहीं निभाई है। उद्योगपतियों को जुलाई में हर साल लक्ष्य दिए जाते हैं। हम बता दें कि सड़कों के किनारे पौधा लगाने के लिए प्रति किलोमीटर नौ लाख रुपए की लागत आती है तथा प्रति किलोमीटर लम्बाई में दो हजार पौधे लगते हैं। मुख्यमंत्री रमन सिंह ने पिछले वर्ष निर्धारित लक्ष्यों के अनुरूप सभी औद्योगिक प्रतिष्ठानों को अगले दस दिनों में इस दर से वन विकास निगम में राशि जमा कराने का निर्देश दिए थे, लेकिन इस समीक्षा बैठक में इसकी चर्चा तक नहीं की गई।

44 फीसदी हिस्से में तो पहले से हैं वन
सरकारी आंकड़ों के अनुसार राज्य के कुल क्षेत्रफल का 44 फीसदी हिस्सा वनों से घिरा हुआ है। इसमें क्षतिपूर्ति वनीकरण के लिए कैम्पा मद से अलग से राशि खर्च हो रही है। इसके अलावा हरियर छत्तीसगढ़ योजना के तहत वन विभाग समेत अन्य विभाग हर साल करोड़ों पौधे लगा रहे हैं।

हरियर छत्तीसगढ़ में लगे 5 करोड़ पौधे
हरियर छत्तीसगढ़ के तहत राज्य में पिछले साल 5 करोड़ पौधे लगाए गए हैं। हरियर छत्तीसगढ़ प्रदेश को हराभरा करने का कार्यक्रम है यह राज्य के अस्तित्व में आने के समय से ही प्रदेश में चलाया जा रहा है। वन विभाग इसमें प्रतिवर्ष 150 करोड़ रुपए खर्च करता है।
राम प्रकाश
प्रधान मुख्य वन संरक्षक

Saturday 11 April 2015

राज्य में शुरू की जाएगी जामवंत परियोजना



0 विभाग को मिली प्रशासनिक अनुमति
रायपुर। वन विभाग राज्य में भालुओं की अधिकता को देखते हुए भालुओं एवं मानवों का द्वंद्व कम करने के लिए जामवंत परियोजना शुरू करेगा। इस संबंध में प्रशासनिक स्वीकृति प्राप्त हो  चुकी है।
उपरोक्त जानकारी प्रधान मुख्य वन संरक्षक राम प्रकाश ने जनता से रिश्ता को दी। श्री प्रकाश ने बताया कि विभाग की कैम्पा योजना के तहत राज्य के 4 वन मंडलों में 23 करोड़ की लागत से जामवंत परियोजना लाई जा रही है। प्रदेश में आए दिन रीछ एवं मानवों के बीच द्वंद्व के कारण कई मौतें तक हो चुकी हैं। राज्य के कई हिस्सों में भालुओं के काटने की घटनाओं में वृद्धि हो रही है। इसलिए विभाग यह योजना ला रहा है। वास्तव में वनों के कम होने से रीछों का मानव बस्ती की ओर ऱूख हो रहा है इसका ही परिणाम भालुओं एवं मानव द्वंद्व के रूप में सामने आ रहा है। राज्य में जामवंत परियोजना लाने का प्रमुख कारण भालुओं की अधिकता है यहां राष्ट्रीय प्रति 100 वर्ग किलोमीटर पर 12 भालुओं के मुकाबले 23 भालू प्रति 100 वर्ग किलोमीटर तक का रहवास है। इस परियोजना में भालुओं की गुफाओं को चिन्हिंत कर उन्हें वहीं व्यवस्थान का कार्य किया जाएगा।  


यहां लागू होगी योजना

वन मंडल- परिक्षेत्र

मरवाही-मरवाही, पेन्ड्रा, गौरेला

कटघोरा-पसान, जटगा एवं केंदई

कोरिया
- खडगंवा, चिरमिरी, बैकुंठपुर, देवगढ़

मनेन्द्रगढ़- मनेन्द्रगढ़

कवर्धा- कवर्धा , पंडरिया
इसके अलावा जशपुर तथा कांकेर के कुछ हिस्से को भी शामिल किया गया है।



ये काम होंगे

0 भालुओं के रहवास की व्यवस्था

0 फलदार पौधों का रोपण

0 जल स्रोत का निर्माण

0 गुफाओं की पहचान एवं प्रबंधन

0 मानव-भालू द्वंद्व की रोकथाम

0 क्षमता विकास एवं प्रशिक्षण कार्य

0 भालू सहायता केन्द्र ।


मुआवजा राशि में की गई बढ़ोतरी

परियोजना के लागू होने से भालुओं के हमले से मृत के परिजनों के मुआवजा राशि में बढ़ोतरी की गई है। इसके तहत अब 2 लाख को बढ़ाकर 3 लाख रुपए कर दिया गया है वहीं घायलों को अब 20 हजार रुपए की जगह अब 40 हजार रुपए मिलेंगे।
डा.रमन सिंह
मुख्यमंत्री (सोमवार को सदन में की घोषणा के अनुसार)

क्या है कैम्पा
राज्य क्षतिपूर्ति वनीकरण कोष प्रबंधन एवं योजना प्राधिकरण (ष्ट्ररूक्क्र) केन्द्र प्रवर्तित योजना है। प्रदेश में क्षतिपूर्ति वनीकरण एवं प्रत्याशा मूल्य के रूप में विभिन्न संस्थानों द्वारा जमा की गई राशि के योजनाबद्ध उपयोग हेतु राज्य क्षतिपूर्ति वनीकरण, कोष प्रबंधन एवं योजना प्राधिकरण (ष्ट्ररूक्क्र) का गठन जुलाई, 2009 में किया गया है। इस प्राधिकरण द्वारा नई दिल्ली स्थित ्रस्र-द्धशष् ष्टड्डद्वश्चड्ड में कुल 1883.68 करोड़ की राशि अब तक जमा की गई है, जिसके विरुद्ध भारत सरकार द्वारा ्रस्र-द्धशष् ष्ट्ररूक्क्र मद से राज्य कैम्पा को  357.98 करोड़ का आबंटन किया गया है। राज्य कैम्पा द्वारा अनुमोदित वार्षिक योजनाओं के आधार पर इस राशि का उपयोग क्षतिपूर्ति वनीकरण, वनों के संरक्षण एवं संवर्धन, वानिकी विस्तार, अनुसंधान एवं प्रशिक्षण, वन्य जंतु संरक्षण, विभागीय अधोसंरचना विकास, वन सुरक्षा तथा सूचना प्रौद्योगिकी के विकास में किया जा जाता है।

राज्य में 23 भालू प्रति 100 वर्गकिलोमीटर की उपस्थिति

जामवंत परियोजना भालुओं से अत्यधिक प्रभावित राज्य के चार वनमण्डल- मारवाही, कटघोरा, कोरिया और मनेन्द्रगढ़ वनमण्डलों में क्रियान्वित होगा। इसके अलावा जशपुर एवं कांकेर के कुछ हिस्से को भी शामिल किया गया है। अधिकारियों ने बताया कि राज्य में भालुओं की संख्या लगभग दस हजार है। राष्ट्रीय औसत 12 प्रति एक सौ वर्ग किलोमीटर की तुलना में मरवाही क्षेत्र में 23 भालू प्रति एक सौ वर्ग किलोमीटर हैं।

प्रसाद खाने आते हैं भालू
बागबहरा क्षेत्र के  घूंचापाली गांव के मंदिर में प्रतिदिन जंगली भालू का एक दल प्रसाद खाने आता है। इस समूह की मानवों के बीच उपस्थिति अतर्राष्ट्रीय चर्चा का विषय है।

कोरबा के जंगलों में दिखा साल बोरर



0 विभाग एलर्ट , वन विभाग का दावा स्थिति नियंत्रण में
रायपुर। कोरबा के साल वृक्षों के जंगलों में साल बोरर कीट के हमले की शिकायतें सुनाई दे रही हैं। कोरबा क्षेत्र के जंगलों में बोरर प्रभावित पेड़ों की तनों के नीचे साल बोरर कीट द्वारा भूसा फैलाया हुआ दिखाई दे रहा है। साल बोरर का प्रकोप देखते हुए विभाग चौकन्ना हो गया है। हालांकि विभाग का दावा है कि स्थिति नियंत्रण में है। 
उल्लेखनीय है कि साल वनों में साल वृक्ष छेदक कीट जिसे साल बोरर के नाम से जाना जाता है का आक्रमण सामान्य बात है। इस कीट के हमले से साल के वृक्ष सूख जाते हैं पूरे साल के तने को यह कीट बरमें की तरह छेद देता है जिसके चलते उसकी जड़ों के किनारे तने से निकला भूसा बिखर जाता है। कोरबा के जंगलों में इस समय साल बोरर का प्रभाव देखा जा रहा है। वन विभाग के अधिकारियों ने कोरबा क्षेत्र के साल वनों में कीट की उपस्थिति की पुष्टि करते हुए कहा कि साल कीट भी वन के कीट पतंगों का हिस्सा है और उनकी उपस्थिति कोई आश्चर्य की बात नहीं है। अगर जंगल रहेंगे तो साल बोरर भी जंगलों में रहेंगे। यह प्रकृति का नियम है। हम साल कीट से जंगलों के बचाव के लिए विभाग द्वारा सुझाए गए हर संभव प्रयास कर रहे हैं। वैसे भी साल के जंगलों में इन बोररों के रोगी पेड़ों का प्रतिशत 2 से 3 प्रतिशत है जो दिखने में तो अधिक लग सकता है परतु उसे महामारी के रूप में स्वीकर नहीं किया जा सकता है ताकि इससे जंगलों को नुकसान पहुंचेगा।

बोरर कीट की मुंडी एक रूपए प्रतिनग
वन विभाग ग्रामीणों को साल बोरर के उन्मूलन के लिए बोरर कीट की कटा हुआ सिर लाने पर एक रुपए प्रतिनग के हिसाब से भुगतान करती है। ग्रामीण बोरर को बरसात के मौसम में पकड़ते हैं जब इन कीड़ों का मेटिंंग सीजन होता है। कीड़े पकडऩे के लिए चिन्हिंत किए गए साल के पेड़ को काटा जाता है तथा उसके तने को छीलकर कीट को पकड़ कर मारा जाता है। कीड़े बड़े बदबूदार होते हैं।

दो साल पहले कीटों की भेंट चढ़ चुके हैं कई पेड़
दो साल पहले कवर्धा क्षेत्र तथा मध्य प्रदेश से लगे राज्य के साल वनों में साल बोरर का जबर्दस्त प्रकोप हुआ था जिसके चलते कई पेड़ों को नुकसान पहुंचा था। वन विभाग ने दो साल पूर्व ही साल (सरई) पेड़ों को बचाने के लिए प्रसाय शुरू कर सुरक्षा के उपाय तलाशे हैं जिनका प्रयोग अब किया जा रहा है।

साल बोरर का कोई प्रकोप नहीं

साल बोरर का कोई प्रकोप अभी कोरबा के जंगलों में नहीं हुआ है मात्र दो से तीन प्रतिशत ही बोरर लगे पेड़ दिख रहे हैं। विभाग बोरर से बचाव के लिए पूरी तरह तैयार है उसका ट्रीटमेंट बरसात में किया जाता है।
राम प्रकाश
मुख्य वन संरक्षक

मौसम बीमा अपर्याप्त, किसानों में असंतोष



0 किसानों का कहना फलस खराब होने पर भी खाद बीज की रकम मिलती है वापस
रायपुर। राज्य में बांटे गए मौसम बीमा भुगतान से किसानों का मोहभंग हो रहा है। उनका आरोप है कि मौसम बीमा में जबरिया हजार रुपए प्रति हैक्टेयर मौसम बीमा शुल्क काटा जाता है जबकि फसल खराब होने के बाद भी मात्र 10 हजार प्रति हैक्टेयर का भुगतान किया जाता है जो उनके द्वारा उत्पादित फसल का लगभग दशवां  हिस्सा होता है।
उल्लेखनीय है कि वर्तमान वर्ष में राज्य में 334 करोड़ रुपए का मौसम बीमा किसानों से कृषि विभाग ने संग्रहित किया है जबकि उसके एवज में मौसम बीमा के रूप में 188 करोड़ रुपए का खराब मौसम बीमा राशि का भुगतान किया है।
ग्राम तेलासी के किसान हेमंत बघेल ने जनता से रिश्ता से कहा कि कृषि विभाग किसानों से प्रति एकड़ 400 रुपए का मौसम बीमा जबरिया वसूलता है। उसके एवज में फसल खराब होने के बाद भी मात्र 4 हजार रुपए प्रतिएकड़ का मौसम बीमा का भुगतान करता है। इसमें सबसे बड़ी बात यह है कि बीमा कंपनी  अनुबंध में अपनी सारी शर्तें पहले से ही लिख कर देती हैं, इस तरह किसानों को अपर्याप्त मौसम बीमा की योजना थमाई गई है। हेंमंत ने बताया कि वे एक एकड़ में 32 से 35 हजार की फसल लेते हैं। यह केवल खरीफ की फसल की कमाई है अगर रबी की फसल को जोड़ा जाए तो इतनी ही और राशि की फसल होती है। उन्होंंने कि इस आंकड़े को हैक्टेयर में बदलकर बताया (किसान एकड़ में आंकता है) कि किसान प्रतिहेक्टेयर  85 हजार की फसल उत्पादित करता है उसके खराब होने बाद भी उसे मात्र 10 हजार दिए जाते हैं इस तरह मौसम बीमा का कोई औचित्य ही नहीं है।
नरदहा के किसान जब्बार खान ने कहा कि इस योजना को शुरू करने से पहले हर 8 किलोमीटर में मौसम केन्द्र खोलने की बात कही गई थी परंतु उसका ठीक से पालन नहीं हुआ जिसके कारण कोई रिकार्ड विभाग के पास नहीं रहता है सब कुछ अंदाजी होता है। उन्होंने कहा कि फसल खराब होने के बाद भी किसानों की मांग के बावजूद मौसम बीमा की राशि का भुगतान नहीं होता है। उन्होंने शिकायत की कि पिछले वर्ष नरदहा की फसल बरबाद हो गई थी बहुत मांग करने के बाद भी कुछ नहीं हुआ । परंतु सरकार मौसम बीमा की रकम सीधे खाते से काट रही है। उनके अनुसार मौसम बीमा कराने का किसानों को कोई लाभ नहीं मिल रहा है।

मौसम बीमा से मुख्यमंत्री से लेकर प्रधानमंत्री तक असंतुष्ट
मौसम बीमा राज्य में पायलट प्रोजेक्ट के तहत प्रारंभ किया गया है इसमें कई तरह की त्रुटियां हैं इसको लेकर प्रदेश के मुख्यमंत्री से लेकर प्रधानमंत्री तक असंतुष्ट हैं। किसानों का असंतुष्ट होना स्वाभाविक है परंतु भारत शासन स्तर पर चर्चा शुरू हो गई है भविष्य में इस योजना में सुधार होंगे।
प्रताप कृदत्त
संचालक,कृषि
 

गजराज परियोजना में शामिल नहीं लेमरू



रायपुर। छत्तीसगढ़ शासन ने राष्ट्रीय हाथी परियोजना का नाम बदलकर गजराज परियोजना लागू की है। इस परियोजना में कोरबा जिले के लेमरू वन क्षेत्र को शामिल नहीं किया गया है जबकि पहले की हाथी परियोजना में लेमरू वन क्षेत्र शामिल था बल्कि लेमरू तथा बादलखोल के नाम से ही हाथी रिजर्व की अनुमति मिली थी।

जानकारों का कहना है कि लेमरू क्षेत्र में कोरबा जिले की बेशकीमती कोयला खदानें हैं इन खदानों के दोहन के लिए ही नई गजराज परियोजना लाकर पूरी चालाकी से इस क्षेत्र को उससे निकाल दिया गया है। वन विभाग से मिली जानकारी के अनुसार पिछले दिनों एक बैठक  में मुख्यमंत्री डा.रमन सिंह ने 132 करोड़ की गजराज परियोजना को मंजूरी दी । इस बैठक में निर्णय लिया गया कि गजराज परियोजना कैम्पा योजना के तहत चलेगी तथा इसे 5 वर्ष में पूरा किया जाएगा। सरकारी तौर पर जारी समाचार में भी बताया गया है कि जंगली हाथियों की समस्या से प्रभावित राज्य के उत्तर पूर्वी सरगुजा और रायगढ़-जशपुर इलाके के सात वनमण्डलों में यह गजराज परियोजना लागू होगी। इनमें जशपुर, बलरामपुर, सरगुजा, सुरजपुर, धरमजयगढ़, रायगढ़ और कोरबा वन मण्डल शामिल हैं। लगभग 26 हजार वर्ग किलोमीटर क्षेत्रों में इस परियोजना का क्रियान्वयन कर वनों का विकास किया जाएगा। गजराज परियोजना के नाम से जरी इन नामों में कहीं भी लेमरु या बादलखोल का नाम तक उल्लेख नहीं किया गया है।
लेमरू क्षेत्र को गजराज परियोजना में शामिल किया गया है या नहीं पर प्रधान मुख्य वन संरक्षक राम प्रकाश ने बताया कि यह परियोजना राज्य में निवासरत हाथियों की स्थिति को ध्यान में रखते हुए लाई गई है। इसमें सेमरसोत, तमोर-पिंगला, बदलखोल तथा रायगढ व सरगुजा के इलाके शामिल हैं। उन्होंने कहा कि हम इस परियोजना के तहत हाथी कारीडोर बनाएँगे। लेकिन हाथी तो एक जानवर है उसे उसके मनपसंद रहवास देकर लुभाया जा सकता है लेकिन उसके लिए जगह आरक्षित कर उस क्षेत्र विशेष में निरूद्ध नहीं किया जा सकता है। श्री राम प्रकाश ने यह भी बताया कि महासमुंद जिले में भी गजराज परियोजना लागू नहीं की गई है जबकि इस वन क्षेत्र में भी हाथियों की उपस्थिति साल के अधिकांश महीनों में बनी रहती है।

क्या होगा गजराज परियोजना में
गजराज परियोजना के अंतर्गत हाथियों के ग्रामीण क्षेत्रों में आक्रमण से बचाव के लिए सोलर फेंसिंग किया जाएगा। वन क्षेत्रों के लगभग छह सौ गांवों के समीप हाथियों के प्रवेश को रोकने के लिए एक हजार किलोमीटर लम्बाई में सोलर फेंसिंग लगाए जाएंगे। वन क्षेत्रों में हाथियों के लिए रूचिकर भोजन वाले पेड़ पौधे जैसे बांस आदि लगाए जाएंगे। जंगलों में हाथियों के लिए तालाब और स्टॉप डेम भी बनाया जाएगा। उन्होंने ने बताया कि प्रकाश की मौजूदगी से हाथी दूर भागते हैं। इसलिए करीब छह सौ गांवों में सोलर मास्ट की व्यवस्था की जाएगी। लोगों को हाथियों से बचाव के लिए जागरूक किया जाएगा। हाथी मित्र दल गठित कर उनके माध्यम से प्रचार-प्रसार किया जाएगा। हाथियों की समस्या से निपटने के लिए जिला स्तर पर कलेक्टर की अध्यक्षता में जिला स्तरीय हाथी प्रबंधन समिति गठित की जाएगी।

पूर्व की हाथी परियोजना में शामिल था लेमरू
देश में मानव-हाथी सह-अस्तित्व को ध्यान में रखकर 1992 में केन्द्र प्रवर्तित हाथी परियोजना लागू की गई थी। इस परियोजना के अनुसार पूरे भारत में 25 हजार हाथी थे। इन हाथियों के लिए हाथी रिजर्व बनाए जाने थे।
सन 2005 तक विभिन्न राज्य सरकारों द्वारा 26 हाथी रिजर्व (ईआर), 60,000 किमी से भी अधिक क्षेत्र तक विस्तारित करके आरंभिक रूप से अधिसूचित किए जा चुके थे। पर्यावरण एवं वन मंत्रालय द्वारा 6 और हाथी रिजर्व के लिए सहमित दी गई जिसमें उड़ीसा में बैतरिणी हाथी रिजर्व तथा दक्षिण उड़ीसा ईआर, छत्तीसगढ़ में लेमडू(लेमरू) तथा बादलखोड़ (बादलखोल)और उत्तर प्रदेश में गंगा-यमुना (शिवालिक) हाथी रिजर्व, मेघालय में खासी ईआर. था । सभी संबंधित राज्य सरकारों द्वारा इन हाथी रिजर्व  को अधिसूचित किया जाना था।

छत्तीसगढ़ में हाथियों का प्रजनन
सूत्रों के अऩुसार राज्य में वर्तमान में 250 हाथी निवास रत हैं और उनमें प्रजनन भी प्रारंभ हो गया है। जबकि प्रदेश के निर्माण के समय मात्र 33 हाथियों का आवास हुआ करता था। सूत्रों ने बताया कि ओडीशा और झारखंड से हाथियों का झुंड आने के कारण इनकी संख्या बढ़ी है। सूत्रों ने यह भी बताया कि हाथी जहां रहना पसंद करते हैं वहीं अपनी संतति उत्पन्न करते हैं अन्यथा उनमें प्रजनन नहीं होता है इसका विश्व स्तर पर उदाहरण युगांडा देश का है जहां हाथियों की उपस्थिति के बावजूद वंश वृद्धि नहीं हो रही है।

लेमरू क्षेत्र में कोयला खदान उत्खनन का प्रस्ताव नहीं

मुख्यमंत्री डा.रमन सिंह की अध्यक्षता में बनी 10 सदस्यीय स्टेट वाइल्ड बोर्ड की बिना अनुमति के किसी भी वन क्षेत्र में किसी भी तरह के उत्खनन का कार्य नहीं किया जा सकता है। दो महीने पहले हुई इस बैठक में लेमरू क्षेत्र में न कोई कोल माइंस के उत्खनन का प्रस्ताव आया है और न  हीं लंबित है।
संदीप पौराणिक
सदस्य स्टेट वाइल्ड बोर्ड
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राज्य में बनाए जाएंगे सायल हेल्थ कार्ड



0 मंत्रालय में हो चुकी है बैठक
0 जीपीएस फोटो सिस्टम से होगा राज्य के खेतों की मिट्टी का सर्वे

रायपुर। लगातार रासायनिक खेती से घट रहे खाद्यान्न उत्पादन को ठीक करने से  लिए राष्ट्रीय स्तर पर नेशनल मिशन फार सस्टेनेबल एग्रीकल्चर (एनएमएसए) योजना लाई गई है। इस योजना के तहत छत्तीसगढ़ में भी सायल हेल्थ मैनेजमेंट के अंतर्गत  सायल हेल्थ कार्ड बनाए जाएंगें । इस संबंध में पिछले दिनों मंत्रालय में बैठक हुई जिसमें सायल हेल्थ बनाने के लिए वृहद कार्य-योजना बनाने का निर्णय लिया गया है। केन्द्र सरकार से मिले निर्देशों के अनुसार वर्तमान वर्ष में इस योजना में साढे 9 लाख सायल हेल्थ कार्ड बनाने का लक्ष्य दिया गया है। 
उपरोक्त जानकारी कृषि विभागीय सूत्रों ने दी है। आधिकारिक सूत्रों का कहना है कि राज्य में कृषि भूमि के समूहों (क्लस्टर) के आधार पर पूरे राज्य की जमीनों का सायल कार्ड बनाया जाएगा। योजना में जीपीएस (ग्लोबल पोजनिंग सिस्टम ) की फोटो सेंसिंग को भी शामिल किया जा रहा है । उपग्रहों से प्राप्त चित्र के आधार पर इस योजना की मैपिंग की जाएगी। योजना का वृहद प्रचार प्रसार आगामी लोक सुराज कार्यक्रम में विभाग द्वारा किए जाने की योजना है।

8 स्थाई व 4 चलित मिट्टी परीक्षण प्रयोगशाला

सूत्रों ने बताया कि विभाग के पास वर्तमान में 8 स्थाई मिट्टी परीक्षण प्रयोगशाला हैं जबकि 4 चलित मिट्टी परीक्षण प्रयोगशाला है जिनमें से वर्ष 15-16 में स्थाई मिट्टी परीक्षण प्रयोगशाला के उन्नयन का प्रस्ताव है। इसके अलावा इस योजना में विश्वविद्यालय की मिट्टी परीक्षण प्रयोगशालाओं को भी शामिल करने की योजना है। राज्य में 36 लाख 46 हजार किसानों के हिसाब से करोड़ों हेल्थ कार्ड बनाए जाने हैं।
 
क्या होगा हेल्थ कार्ड में

सायल हेल्थ कार्ड में किसान के खेत की मिट्टी में वर्तमान पोषक तत्वों की जानकारी होगी तथा उस मिट्टी में समय-समय पर डाले जाने वाली रसायन और कार्बनिक खादों की मात्रा का विवरण दर्शाया जाएगा। उसके अनुसार मिट्टी में होने वाले परिवर्तन तथा उसके अनुसार आगामी उगाई जाने वाली फसल के संबंध में रासायनिक खाद संबंधी परामर्श दिया जाएगा।

धमतरी-जांजगीर जिले का फर्टीलिटी मैप तैयार

इंदिरा कृषि विश्वविद्यालय से मिली जानकारी के अनुसार विश्वविद्यालय ने उसके कोटे का धमतरी और जांजगीर में प्रति 10 हैक्टेयर से मिट्टी का परीक्षण कर सायल हल्थ का फर्टीलिटी मैप बनाने का काम किया है। किसानों का सायल हेल्थ कार्ड विश्वविद्यालय की प्रयोगशाला में बनाने की सुविधा है। यहां जागरूक किसानों का सायल हेल्थ कार्ड बनाया जा रहा है।

कम उत्पादन से कई राज्य प्रभावित
रासायनिक खेती कर अधाधुंध उत्पादन लेने के कारण हरियाणा,पंजाब में खेती के उत्पादन में कमी आई है। इसी तरह विश्व स्तर पर रूस इस बीमारी से पीडि़त है जहां की खेती बंजर होने के कगार पर है। यही कारण है कि हरियाणा और पंजाब के किसान छत्तीसगढ़ की जमीन खरीद कर खेती करने की ओर आकर्षित हो रहे हैं।

पोषक तत्व की कमी से नहीं होगा पौधा का जीवन चक्र पूरा
किसी भी पौधे के जीवन चक्र के पूर्ण होने में 19 पोषक तत्व जिम्मेदार होते हैं। पौधों का 95-96 प्रतिशत भाग कार्बन, हाइड्रोजन और आक्सीजन से बना होता है जो वायुमंडल में प्राकृतिक रूप से प्रचुर मात्रा में उपलब्ध है शेष 4 प्रतिशत जमीन से पौधा लेता है जिसे संतुलित रखने की जिम्मेदारी किसान की होती है। इन 19 पोषक तत्व में किसी भी एक की कमी होने पर उसकी जगह कोई दूसरा तत्व स्थानापन्न नहीं हो सकता है । इन पोषक तत्वों की कमी से बीज से पौधा फिर फल से बीज का जीवन चक्र पूरा नहीं कर सकेगा।
डा.रमाकांत बाजपेयी
विभागाध्यक्ष, मृदा विज्ञान एवं कृषि रसायन विभाग
इंदरा गांधी कृषि विश्वविद्यालय, रायपुर

पौधे को जीवन चक्र के लिए इन पोषक तत्वों की जरूरत है
प्राथमिक पोषक तत्व कार्बन, हाइड्रोजन, आक्सीजन (वायुमंडल से) नाइट्रोजन, फास्फोरस, पोटाश, (प्राथमिक तत्व) कैल्शियम, मैग्नेशियम तथा सल्फर (द्वितीयक तत्व) तथा सूक्ष्म पोषक तत्व में आयरन, मैग्नीज, जिंक,कापर, बोरान, मैग्नीशियम, क्लोरीन, निकिल, कोबाल्ट तथा सिलिकान।

रासायनिक खेती की जगह पारंपरिक अच्छी

अंधों की तरह रासायनिक खेती करने की जगह पारंपरिक कार्बनिक खेती करना(गोबर खाद, कम्पोस्ड खाद का उपयोग) ज्यादा अच्छा है जिससे खेती में पोषक तत्वों का संतुलन कायम रहता है इस पद्धति में मिट्टी से जितना किसान लेता है उसे उतना ही वापस देता भी है जबकि रासायनिक खेती में हम उसके संतुलन को बिगाड़ते हैं। धरती में जो भी पदार्थ डाला जाता है सभी की रासायनकि क्रिया प्रतिक्रिया होती है और वह धरती में संरक्षित रहती है जिसका प्रभाव उसमें उगने वाली वनस्पति पर पड़ता है।



बनेगा अमरकंटक से मैनपाट तक पर्यटन सर्किट

0 केन्द्र ने दी सैद्धांतिक सहमति, विकसित करने मिलेंगे 75 करोड

रायपुर(जसेरि)। प्रदेश के पर्यटन एवं संस्कृति मंत्री अजय चंद्राकर के विशेष प्रयासों से राज्य में अमरकंटक से लेकर मैनपाट तक एक पर्यटन सर्किट बनाने का निर्णय लिया गया है। इस संबंध में न केवल प्रस्ताव बन चुका है बल्कि इस प्रस्ताव पर केन्द्र पर्यटन विभाग से सहमति भी बन चुकी है।
उल्लेखनीय है कि मेकल की श्रेणियों से सजा प्रदेश का यह क्षेत्र हरियाली से भरपूर है इसके अलावा यह क्षेत्र नक्सली गतिविधियों से भी अछूता है। इस क्षेत्र की खूबसूरती ने प्रदेश के संस्कृति मंत्री अजय चंद्राकर को छुआ और उन्होंने अपने मंत्री बनते ही विभाग को इस क्षेत्र में पर्यटन सर्टिक बनाने के निर्देश दिए थे। हम यहां यह भी बताते चलें कि राज्य का बस्तर क्षेत्र जहां आज भी आदम संस्कृति धड़कती है उस धरती के स्वर्ग में नक्सली गतिविधियां जारी हैं जिसके चलते राज्य में पर्यटक आने से बिचकते हैं। हालांकि नक्सली गतिविधियों से बस्तर के पर्यटन क्षेत्र बहुत दूर हैं इसके बावजूद भी पर्यटकों का छत्तीसगढ़ प्रवास लगभग न के बराबर है। पर्यटकों के इसी डर को दूर करने के लिए और राज्य में उनको आकर्षित करने के लिए पर्यटन मंत्री अजय चंन्द्राकर ने राज्य के उत्तरी क्षेत्र में पर्यटन सर्किट बनाने के निर्देश दिए थे। उसी के परिपालन में विभाग ने प्रस्ताव बना कर केन्द्र को भेजा और केन्द्र से इस सर्किट को सैद्धांतिक सहमति भी मिल चुकी है।
अधिकारियों ने बताया कि भारत सरकार इस वर्ष देश में सर्किट, डेस्टीनेशन, वे साइट, फेस्टीवल तथा ग्रामीण पर्यटन पर विशेष ध्यान दे रही है। उसने देश के 151 प्रोजेक्ट को विकसित करने की योजना बनाई है। केन्द्र सरकार की इस परियोजना में छत्तीसगढ़ के उत्तरी सीमां से लगे सर्किट को भी स्थान मिलने की पूरी संभावना है। अधिकारियों ने बताया कि यदि यह संभव हुआ तो इस खूबसूरत क्षेत्र में सर्किट विकसित करने के लिए 75 करोड़ रुपए मिलेंगे। वर्तमान में राज्य में प्रतिवर्ष मैनपाट कार्निवाल मनाया जाता है जिसे राष्ट्रीय स्तर पर प्रसिद्धि मिल रही है।

कौन से पर्यटन क्षेत्र होंगे शामिल
अमरकंटक के छत्तीसगढ़ के क्षेत्र राजमेढ़ गढ़ से नीचे उतरते हुए केन्दा का घना जंगल, उसके बाद रतनपुर का महामाया मंदिर शक्तिपीठ, उसके पश्चात पाली का शिवमंदिर जहां एरोटिक मूर्तियां दीवारों पर खचिंत हैं, हसदेव बांगों डेम, रामगढ़ की विश्व प्रसिद्ध सीता भोंगरा की प्राचीन नाट्यशाला, जिसे मेघदूत की रचना स्थली होने का गौरव प्राप्त है। पुरातात्विक स्थल महेशपुर तथा अंत में मैनपाट की हसींन वादियां जहां के ठंडे वातावरण के कारण तिब्बतियों की बसाहट की गई है शामिल होगा।

फिल्मकारों को भी आकर्षित रहा है क्षेत्र
छत्तीसगढ़ का यह अछूता पर्यटन क्षेत्र फिल्मकारों को आकर्षित करने का माद्दा रखता है। इस क्षेत्र की खूबसूरती के कारण ही यहां हिन्दी फीचर फिल्म काला पत्थर की शूटिंग हो  चुकी है। इसके अलावा यहां ताता पानी, झुनझुना पत्थर से लेकर पर्यटकों को आकर्षित करने की बहुत सी जगहें स्थित हैं।

Tuesday 7 April 2015

करोड़ों फूंकने के बाद भी राज्य में नहीं खिले फूल


0 राष्ट्रीय बागवानी मिशन 2005 से कर रहा प्रोत्साहित
0 सरकार के पास मानीटरिंग की कोई व्यवस्था नहीं
रायपुर(जसेरि)। राष्ट्रीय बागवानी मिशन की उदासीनता और अधिकारियों की गलत नीतियों के कारण राज्य में जोरशोर से शुरू की गई विदेशी फूलों की खेती ने खिलने से पहले ही दम तोड़ दिया। वहीं छत्तीसगढ़ राज्य के विदेशी फूल निर्यात में शून्य भागीदारी है जबकि यहां पर फूलों के उत्पादन की पर्याप्त संभावना थी। वर्तमान में राजधानी के बाजार में विदेशी फूल को कौन कहे गेंदे तक में कलकत्ता के फूलों का कब्जा है। जबकि हार्टीकल्चर विभाग पिछले 8 सालों से राज्य को विदेशी फूलों के मामले में आत्म निर्भर बनाने के लिए करोड़ों का अनुदान बांट चुका है।
 सूत्रों से मिली जानकारी के अनुसार विभाग पिछले 2005-06 से राज्य में फूलों की खेती को बढावा देने के लिए किसानों को प्रोत्साहित कर रहा है उसके लिए बकायदा नि:शुल्क शेडनेट बांटे गए हैं तथा पालीनेट हाउस के लिए भी अनुदान दिए गए हैं ताकि राज्य के गर्म वातावरण में कृत्रिम तरीके से हाऊस के अंदर ठंडे प्रदेशों का वातावरण पैदा कर विदेशी फूलों की संरक्षित खेती की जाए और विदेश से आयात होने वाले फूलों को रोका जाए तथा फूलों के मामले में राज्य को आत्म निर्भर बनाया जाए। उल्लेखनीय है कि भारत में भी विभिन्न त्यौहारों में तथा स्वागत समारोहों में महंगे फूलों से स्वागत करने की परंपरा विकसित हुई है। हर राजधानी में फूलों की अलग मंडी विकसित हो चुकी है। इसके अलावा भारत विश्व बाजार में तेजी से फूल निर्यातक देश के रूप में भी उभर रहा है।
वर्तमान में सरीकल्चर विभाग द्वारा राज्य में डच रोजेज,मैनूपाल, सभी रंग के ग्लेिडियेटर, झरबेरा,कलकत्तिया गेंदा, रजनीगंधा तथा हाईब्रीड के फूलों की खेती को प्रोत्साहित किया जा रहा। फूलों की खेती के संबंध में जब जनता से रिश्ता ने बाजार सर्वे किया तो फूल चौक के शिव फूल भंडार के मोनू ने बताया कि अभी बाजार में कलकत्ता के गेंदा और विदेशी फूल ही आते हैं। वहीं एक अन्य व्यापारी का कहना था कि लोकल बाड़ी से डच गुलाब आए हैं बाकी मोंगरे की कलिया बिलासपुर से तथा सभी फूल अन्य प्रदेशों से आए हैं। छत्तीसगढ़ के फूल सिर्फ ठंड के मौसम में थोड़े बहुत आते हैैं।

मानीटरिंग को कोई व्यवस्था नहीं
सूत्रों का कहना है कि शासन किसानों को अनुदान देकर खुश है। विभाग किसानों को मुफ्त में शेडनेट बांटता है उसके बाद यह भी नहीं देखता कि उस शेडनेट में धनिया बोई जा रही है या फिर फूल खिलाए जा रहे हैं।

फूलों से डालर कमाने की नहीं मिली रही सुविधा
फूल कृषक श्री वरु ने बताया कि हमें कर्नाटक की तरह मार्केटिंग की सुविधा नहीं मिली जबकि कर्नाटक में किसानों को गुलाब को विदेश भेजने की सुविधा दी जा रही है। क्रिसमस में जब यूरोप में गुलाब फूलों की मांग होती है तब वहां बर्फ जमी रहती है। अगर हमें भी कर्नाटक के तरह ही विदेश व्यापार से जोड़ा जाता तो यहां भी फूलों की खेती परवान चढ़ सकती है।

फूलों का निर्यात करोड़ों में

भारत में वर्ष 2013-14 में फूलों का कुल निर्यात 455.90 करोड़ रुपए का रहा। प्रमुख आयातक देश संयुक्त राज्य अमेरिका, नीदरलैंड, जर्मनी, ब्रिटेन, संयुक्त अरब अमीरात, जापान और कनाडा थे। भारत में 300 से अधिक निर्यातोन्मुख इकाईयाँ है। फूलों की 50त्न से अधिक इकाईयाँ कर्नाटक, आंध्र प्रदेश और तमिलनाडू में है। विदेशी कम्पनियों से तकनिकी सहयोग के साथ भारतीय पुष्पकृषि उद्योग विश्व व्यापार में अपनी हिस्सेदारी बढ़ाने की और अग्रसर है।

फूलों की खेती का रकबा बढ़ रहा
प्रदेश में फूलों की खेती का रकबा बढ़ रहा है। फूलों की खेती में अधिक पैसा लगता है। यहां के छोटे किसान उसे पूरा नहीं कर पाते हैं तथा अपने फूलों को विदेश नहीं भेज पाते हैं। इसके अलावा किसानों को खुद ही मार्केटिंग करना होता है जो उनके बस की बात नही है फिर भी हमारी कोशिश है कि राज्य में फूलों की खेती विकसित हो।
भुवनेश यादव
संचालक, उद्यानिकी विभाग

छत्तीसगढ़ से मजदूरों का पलायान जोरों पर



0 अधिक रोजी के  लालच हो रहा पलायन, मनरेगा के लडख़ड़ाने से पलायन हुआ तेज
रायुपर। छत्तीसगढ़ से मजदूरों के पलायन का सिलसिला शुरू हो चुका है। रोजो रोटी की तलाश में प्रदेश के मजदूर उत्तर प्रदेश, नई दिल्ली,पंजाब,हरियाणा और काश्मीर की ओर पलायन करने को मजबूर हो रहे हैं। उनके इस पलायन को  राज्य में लडखड़़ाए मनरेगा के काम ने पलायन को और बढ़ा दिया है।
मिली जानकारी के अनुसार लवन क्षेत्र के 60 गांवों से हर साल लगभग 35 हजार किसान-मजदूर दूसरे राज्य चले जाते हैं। ये लोग उत्तर प्रदेश, बिहार, जम्मू एवं कश्मीर, दिल्ली, महाराष्ट्र, मध्यप्रदेश सहित देश के अन्य हिस्सों में जाकर भवन निर्माण, सड़क व नाली निर्माण जैसे काम में लग जाते हैं या ईंट-भट्टों पर काम करते हैं। राज्य के बेमेतरा, बालोद, कवर्धा, गरियाबंद, दुर्ग, धमतरी सहित कई और जिलों से भी किसान-मजदूरों के पलायन की खबरें लगातार आ रही हैं। इन मजदूरों के पलायन में आदिवासी बहुल क्षेत्रों के मजदूरों का प्रतिशत नहीं के बराबर है।
रायपुर रेलवे स्टेशन  पर  पलायन  कर रहे शंभू बघेल ने बताया कि राज्य के बाहर हम छत्तीसगढिय़ा मजदूरों  की अच्छी पूछ परख है। लोग हमें बिलसपुरिहा मजदूर पुकारते हैं और दूसरे मजदूरों के मुकाबले हमारी मेहनत देखकर ज्यादा पैसा देते हैं। यहां के मुकाबले अन्य प्रदेशों में अच्छी मजदूरी मिलती है। वो नई दिल्ली में रेलवे निर्माण में लगे निजी ठेकदार के यहां काम करता है इस काम में उसकी पत्नी भी साथ रहती है। उसने बताया कि चूंकि काम सरकारी हिसाब का है इससे हम लोग थोड़ा दम भी मार लेते हैं फिर भी पूरी मजदूरी मिलती है।
वहीं दूसरी तरफ बलौदाबाजार के कंस निषाद ने बताया कि 'Óहम 55 मजदूर एक साथ गांव छोड़कर जा रहे हैं। साथ में 15 बच्चों भी हैं। हम लोग फैजाबाद में ईंट बनाने का काम करेंगे। एक हजार ईंट बनाने पर 400 रुपये मिलते हैं। दो मजदूर मिलकर एक दिन में दो हजार से ज्यादा ईंट बना लेते हैं। हम लोग छह महीने वहां काम कर लौट आएंगे।ÓÓ
इसके अलावा एक अन्य मजदूर दल के जगदीश कुर्रे का कहना था कि वो लोग काश्मीर में बर्षों से काम करने जाते हैं वहां उनका झाला है तथा वहां के सारे व्यापारी उन्हें पहचानते हैं उसके पास वहां पहुंचने तक का पैसा है। उसके बाद वे झाला में रहेंगे तथा बिना किसी सहारे के दैनिक मजदूरी करेंगे। उसने बताया कि वो किसी का पैसा लेकर नहीं आते हैं इसलिए सभी दुकानदारों के बीच छत्तीसगढ़ के मजदूरों की अच्छी साख है। उल्लेखनीय है कि पिछले कई वर्षों में ये मजदूर काश्मीर की आतंकी गतिविधयों के भी शिकार हो चुके हैं लेकिन फिर भी काश्मीर जाना नहीं चूकते हैं।
राज्य में मनरेगा के लडख़ड़ाने से प्रदेश में मजदूरों का पलायन में तेजी आई है। वैसे छत्तीसगढ़ के ये मजदूर अब रोजीरोटी कमाने दूसरे प्रांतों में जाने के आदि हो चुके हैं। ये मजदूर कृषि कार्य के समय अपने गांवों में आ जाते हैं।

सदन में उठ चुका है मामला
छत्तीसगढ़ विधान सभा में भी मजदूरों के पलायन का मामला उठ चुका है। छत्तीसगढ़ विधानसभा में राजस्व मंत्री प्रेमप्रकाश पांडेय ने नेता प्रतिपक्ष टी.एस. सिंहदेव के एक सवाल के लिखित जवाब में प्रदेश से मजदूरों के पलायन की बात स्वीकारी है। उन्होंने बताया है कि सूबे में बीते तीन वर्षो में 95 हजार 324 लोगों ने अधिक मजदूरी के लालच में या परंपरागत ढंग से पलायन किया है। राजस्व मंत्री के जवाब में सर्वाधिक 29 हजार 190 पलायन जांजगीर चाम्पा जिले से होना बताया गया है।

बंधक तक बनना आम बात
रोजी रोटी की तलाश में भटकते इन मजदूरों पर दैहिक और आर्थिक शोषण की बात आम है कभी-कभी तो इनके बंधक बनाने की जानकारी मिलती है। छत्तीसगढ़ के 725 बंधक मजदूरों को पिछले 27 माह में दीगर राज्यों से मुक्त कराया गया है। इस दौरान मजदूरों को बंधक बनाए जाने के 243 मामले सामने आए थे। हर महीने छत्तीसगढ़ के मजदूरों को बंधक बनाए जाने के औसतन 9 मामले हैं। इससे यह भी निष्कर्ष निकाला जा सकता है कि हर माह छत्तीसगढ़ के करीब 27 मजदूरों को दीगर प्रांतों के ठेकेदार बंदी बना लेते हैं।

Monday 6 April 2015

खाद्यान्न-योजना में बदलाव से धान खरीदी पर असर पड़ेगा


रायपुर । छत्तीसगढ़ सरकार द्वारा राज्य में चलाई जा रही खाद्यान्न योजना में बदलाव करने से प्रदेश में समर्थन मूल्य पर धान खरीदी पर असर पडऩे की आशंका किसान संघों ने जताई है। इस योजना में बदलाव से राज्य को ही खाद्यान्न की कम जरूरत पड़ेगी जिसका सीधा असर किसानों से न्यूनतम मूल्य पर की जाने वाली सरकारी धान खरीदी पर पड़ सकता है।
उल्लेखनीय है कि शासन ने कल अपने चर्चित पीडीएस सिस्टम में बदलाव करते हुए प्रति परिवार 35 किलो खाद्यान्न की जगह नेशनल फुट सिक्यूरिटी एक्ट की तरह ही प्रति व्यक्ति 5 किलो की जगह 7 किलो खाद्यान्न देने का फैसला किया है। इस बदलाव में एपीएल तथा साधारण कार्डधारियों के खाद्यान्न नहीं देने का फैसला लिया गया है। इस निर्णय से राज्य के पीडीएस सिस्टम में 5 लाख टन कम खाद्यान्न की जरूरत पड़ेगी, जिसका कहीं न कहीं असर सरकार के समर्थन मूल्य पर धान खरीदी पर असर पड़ेगा।
डा.संकेत ठाकुर ने इस बदलाव का स्वागत करते हुए कहा कि  एक रुपए प्रतिकिलो में 35 किलो खाद्यान्न प्रति परिवार देने की योजना से लोगों में शराब खोरी बढ़ रही थी। इस योजना में बदलाव पर एग्रीकान संस्था के अध्यक्ष डा.संकेत ठाकुर ने कहा कि बदलाव से राज्य के समर्थन मूल्य पर धान खरीदी में कोई फर्क नहीं पड़ेगा क्योंकि आने वाले साल में सरकार किसानों से समर्थन मूल्य पर धान खरीदी करना ही नहीं चाहती है। सरकार ने अपने बजट में धान खरीदी के लिए किसी तरह के बजट का कोई प्रावधान नहीं रखा है। सरकार सीधे इस योजना के लिए राइस मिलरों से चावल खरीदेगी और उसे किसानों से कोई लेना देना नहीं है। उन्होंने बताया कि पिछले वर्षों के बजट में सरकार ने धान खरीदी के लिए अलग से बजट का प्रावधान नहीं किय है जोकि इससे पूर्व के बजट में किया करती थी।
वहीं दूसरी तरफ राइस मिल एसोसिएशन के अध्यक्ष योगेश अग्रवाल ने कहा कि सरकार हमसे यदि कम चावल खरीदेगी तो राइस मिलरों को तकलीफ होगी। और सरकारी धान खरीदी की योजना में इस बदलाव से कोई फर्क पड़ेगा कि नहीं इस पर कहना जल्दबाजी होगी।
इस बदलाव पर कांग्रेस के नेता प्रतिपक्ष टीएस सिंहदेव ने कहा कि रमन सरकार को खाद्यान्न योजना को तामिलनाडु सरकार की तरह यूनिवर्सल बनाना था इसमें बिना की भेदभाव के सभी को 7 रुपए प्रतिक्विंटल चावल देते तब भी सरकार को प्रतिवर्ष 1680 करोड़ का फायदा होता। बड़ी-बड़ी बात करने वाली रमन सरकार नेशनल फुड सिक्योरिटी की राह पर आई अच्छी बात है। श्री टीएस सिंहदेव ने कहा कि खाद्यान्न योजना में बदलाव से किसानों से धान खरीदी पर कोई सीधा प्रभाव नहीं पड़ेगा। क्योंकि धान खरीदी सेंट्रल पूल के लिए खरीदी जाती है। यह खरीदी बैंकों से कर्ज लेकर की जाती है लेकिन देर होने के कारण हमेशा यह योजना घाटे पर चलती है।
छत्तीसगढ़ संयुक्त किसान मोर्चे के संयोजक जागेश्वर प्रसाद ने कहा कि डा.रमन सिंह की खाद्यान्न योजना प्रदेश में सरकार लाने के लिए चलाया गया गोरखधंधा था। पूरे देश विदेश में वाहवाही लूटने के बाद अब इसमें बदलाव किया जा रहा है। इस वर्ष सरकार ने किसानों से 15 क्विंटल धान खरीदा है आने वाले समय में सरकार 10 क्विंटल भी खरीद सकती है ताकि केवल तकाबी वसूल हो जाए बस। उनका मानना है कि योजना में बदलाव का असर धान खरीदी पर जरूर पड़ेगा।

बोनस नहीं देने पर खरीदेगा केन्द्र सेंट्रलपूल का खाद्यान्न
केन्द्र सरकार द्वारा पिछले दिनों आए सर्कुलर के अनुसार जिन राज्यों में न्यूनतम मूल्य पर खाद्यन्न खरीदी के बाद बोनस दिया जाता है ऐसे सम्पन्न राज्यों से सेन्ट्रल पूल का खाद्यान्न खरीदने से परहेज किया जाएगा। शांताकुमार की अध्यक्षता में बनी कमेटी के अनुसार छत्तीसगढ़ से सेन्ट्रल पूल का खाद्यान्न न खरीदने की सिफारिश की गई है। इसी का परिणाम कि राज्य ने इस वर्ष किसानों को धान का बोनस नहीं दिया है चूंकि सेंट्रल पूल में धान कम खरीदी होगी और राज्य में कम खाद्यान्न की जरूरत होगी तो ऐसे में किसानों से समर्थन मूल्य पर धान खरीदी में असर पड़ सकता है।

Sunday 5 April 2015

मेरी बात

मैं 52 वर्षीय चुकता हुआ पत्रकार हूं। चुकता हुआ इसलिए क्योंकि आज के इस नए दौर में उद्योगों में कार्य करने के लिए अधिकतम उम्र 35 वर्ष मानी जाती है इस दृष्टि से मैं चुक रहा हूं परंतु मेरे अनुसार से मेरी उम्र दुनिया को उसके पूरे आयाम के साथ देखने की हो गई है। इसके साथ ही बहुत सा अनुभव भी उम्र के इस पड़ाव में संचित हो गया है। इससे मुझे लगता है कि शायद मेरी समझ दूसरों से कई मामलों में कुछ अलग होगी। चूंकि ब्लाग लेखन एक कष्ट साध्य विषय है जो मेरे लिए न तो संभव है और न मेरी प्राथमिकता ही है फिर भी मुझे ब्लाग लेखन में उतरना पड़ रहा है। ब्लाग का नाम द्वितीय प्रकाशन इसलिए रख रहा हूं क्योंकि स्थानीय समाचार पत्र में काम करने के कारण मेरे उत्पादन के प्रथम प्रकाशन का अधिकारी मेरा समाचार पत्र है। उसमें छपने के बाद उसे इस ब्लाग में स्थान दिया जाएगा।

चूंकि मेरी वृत्ति पत्रकारिता है मुझे अपने लेखन के लिए पुराने लेखों की भी जरूरत पड़ती है इसलिए इस ब्लाक को बना रहा हूं। अगर आपको मेरे लेख व समाचार पसंद आए तो मेरी खुशकिस्मती अन्यथा मुझे तो अपने रिकार्ड के लिए कहीं न कहीं अपना लेखन बैंक बनाना ही है।
- प्रमोद ब्रह्मभट्ट